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चिन्तामणि

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१७६ चिन्तामणि एक का बोध कराए । जहाँ इस रूप में कार्य न करके वह ऐसे अर्थ का बोध कराती है जो बाधित, असंभव, असंयत या असंबद्ध होते है वहाँ वह केवल भाव या चमत्कार का साधन मात्र होती है, उसका वस्तु-ज्ञापन-कार्य एक प्रकार से कुछ नहीं होता। ऐसे अर्थों को मूल्य इस दृष्टि से नहीं अॉका जाता कि वे कहाँ तक वास्तविक, संभव या अव्याहत है बल्कि इस दृष्टि से अका जाता है कि वे किसी भावना को कितने तीव्र और बढ़-चढे रूप में व्यञ्जित करते हैं अथवा उक्ति में कितना वैचित्र्य या चमत्कार लाकर अनुरञ्जन करते है। ऐसे अर्थविधान की संभावना काव्य में सबसे अधिक होती है। पर यह न समझनी चाहिए कि काव्य में अर्थ सदा इसी संक्रमित, अधीन दशा में ही पाया जाता है। बहुत सी अत्यन्त मार्मिक और भावपूर्ण कविताएँ ऐसी होती है जिनमे भापा कोई वेशभूया या रूप-रह नहीं बनाती ; अर्थ अपने खुले रूप में ही पूरा रसात्मक प्रभाव डालते हैं। काव्य की अपेक्षा रूपक या नाटक में भाव-यजना या चमत्कार के लिए स्थान परिमित होता है। उसमें भाप अपनी अर्थक्रिया अधिकतर सीधे ढंग से करती है, केवल बीच-बीच में ही भाव या चमत्कार उसे देवाकर अपना काम लेते है। बात यह है कि नाटक कथोपकथन के सहारे पर चलते हैं। पात्रों की बातचीत यदि वरावर वक्रता लिए अतिरञ्जित या हवाई होगी तो वह अस्वाभाविक हो जायगी और सारा नाटकत्व निकल जायगा । यह ठीक है कि पश्चिम में कुछ कवियों ने ( नाटककारो ने नही ) केवल कल्पना की उड़ान दिखानेवाले नाटक लिखे है, पर वे शुद्ध नाटक की कोटि मे नही लिए जाते । यही वात मन की भावनाओ या विकारो को मूर्त रूप मे-पात्रो के रूप मे-खड़े करनेवाले नाटको के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है ।। | आख्यायिका या उपन्यास के कथाप्रवाह और कथोपकथन में अर्थ अपने प्रकृत रूप में और भी अधिक विद्यमान रहता है और