पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१८६

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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद भिन्न प्रकार की वृत्तियाँ ठहरती हैं। वस्तु-व्यञ्जना किसी तथ्य या वृत्त का बोध कराती है, पर भाव-व्यञ्जना जिस रूप में मानी गई है। उस रूप में किसी भाव का संचार करती है, उसकी अनुभूति उत्पन्न करती है । वोध या ज्ञान कराना एक बात है और कोई भाव जगाना दूसरी बात । दोनो भिन्न कोटि की क्रियाएँ हैं। पर साहित्य के ग्रन्थो में दोनो मे केवल इतना ही भेद स्वीकार किया गया है कि एक में वाच्यार्थ से व्यंग्यार्थ पर आने का पूर्वापर क्रम श्रोता या पाठक को लक्षित होता है, दूसरी में यह क्रम होने पर भी लक्षित नहीं होता । पर बात इतनी ही नहीं जान पड़ती । रति, क्रोध आदि भावो का अनुभव करना एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर जाना नहीं है, अतः किसी। भाव की अनुभूति को व्यंग्या कहना बहुत उपयुक्त नहीं जान पड़ता । यदि व्यंग्य कोई अर्थ होगा तो वस्तु या तथ्य ही होगा और इस रूप में होगा कि “अमुक प्रेम कर रहा है, अमुक क्रोध कर रहा है। पर केवल इस बात का ज्ञान करना कि अमुक क्रोध या प्रेम कर रहा है स्वयं क्रोध या रति भाव का रसात्मक अनुभव करना नहीं है। रस-व्यञ्जना इस रूप में मानी भी नहीं गई है । अतः भाव-व्यञ्जना या रस-यजनी वस्तु-व्यञ्जनों से सर्वथा भिन्न कोटि की वृत्ति है । रेस-व्यञ्जना की इसी भिन्नता या विशिष्टता के बल पर व्यक्तिविवेक'कार महिम भट्ट का सामना किया गया था जिनका कहना था कि व्यञ्जन' अनुमान से भिन्न कोई वस्तु नहीं । विचार करने पर वस्तु-व्यञ्जना के सम्बन्ध में भट्टजी का पक्ष ठीक ठहरता है। व्यंग्यवस्तु या तथ्य तक हम वास्तव मे अनुमान द्वारा ही पहुँचते हैं । पर रस-व्यञ्जना लेकर जहाँ वे चले हैं वहाँ उनके मार्ग में बाधा पड़ी है। अनुमान द्वारा बेधड़क इस प्रकार के ज्ञान तक पहुँचकर कि “अमुक के मन में प्रेम है या क्रोध है उन्हें फिर इस ज्ञान को 'आस्वाद