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चिन्तामणि

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१८० चिन्तामणि पदवी' तक पहुँचाना पड़ा है। इस आस्वाद-पदवी' तक रत्यादि का ज्ञान किस प्रक्रिया से पहुँचती है, यह सवाल यो का यो रह जाता है । अतः इस विपय को स्पष्ट कर लेना चाहिए। या तो हम भाव या रस के सम्बन्ध में 'व्यञ्जना' शब्द का प्रयोग न करे, अथवा वस्तु या तथ्य के सम्बन्ध मे । शब्द-शक्ति का विषय बड़े महत्त्व का है। वर्तमान साहित्य-सेवियो को इसके सम्बन्ध में विचार-परम्परा जारी रखनी चाहिए । काव्य की मीमांसा या स्वच्छ समीक्षा के लिए यह बहुत उपयोगी सिद्ध होगी। | जब ल के प्रसिद्ध अंगरेज समालोचक रिचर्डस् ( I. A. Richards ) जो योरपीय साहित्य में समीक्षा के नाम पर पैलाए हुए वहुत-से अर्थशून्य वाग्जाल को हटाकर शुद्ध विवेचनात्मक समीक्षा का रास्ता निकाल रहे है, हमारे यहाँ के शब्द-शक्ति-निरूपण के ढर्रे पर अर्थमीमांसा को लेकर चले है। उन्होने “व्यावहारिक काव्यसमीक्षा' (Practical Criticism ) नामक अपने बड़े ग्रन्थ मे चार प्रकार के अर्थ माने है---( १ ) प्रस्तुत अर्थ या व्यंग्य वस्तु ( Scanse ), (२) व्यंग्य भाव ( Feeling), (३) वोद्धव्य की विशेपता ( Toine ) और भीतरी उद्देश्य ( Intention ) । जिन्होने अपने यहाँ के शब्द-शत्ति-निरूपण को अच्छी तरह मनन किया है वे देख सकते हैं कि इन चारो में वास्तव में दो ही मुख्य हैं। तीसरे का समावेश हमारे यहाँ आर्थी व्यजना के कारणों के अन्तगंत हो जाता है-- वक्तृवोदयवाक्यानामन्यसनिधिवाच्ययोः । प्रस्तावदेशकालाना काकोश्चेष्टादिकस्य च ।। चौथे का समावेश अभिधामूलक ध्वन्यार्थ के अन्तर्गत हो जाता है जिसका एक उदाहरण यह है--‘हे धार्मिक ! वेधड़क फिरिए । उस कुत्ते को, जो आपको सताता था, गोदावरी-तट के उस कुञ्ज मे