पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१८८

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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद रहनेवाले सिंह ने मार डाला । इसमें कहनेवाली नायिका का भीतरी उद्देश्य यह है कि भगतजी उस एकान्त कुञ्ज के पास फूल आदि तोड़ने न जाया करें, पर वह और ही ढंग से कहती है कि वेधड़क फिरिए।' हमारे यहाँ शब्द-शक्तियो के भेद-निरूपण का जैसा स्वच्छ मार्ग है वैसा यदि रिचर्डस् को मिलता तो उन्हें उक्त पिछले दो प्रकार के अलग अर्थ न रखने पड़ते ।। । उक्त चार प्रकार के अर्थों का उल्लेख करके रिचर्डस् ने कहा है। कि उक्ति में कभी किसी अर्थ की प्रधानता रहती है, कभी किसी अर्थ की । काव्य में अधिकतर व्यंग्य भाव की प्रधानता रहती है। पर वे कहते हैं कि इसका यह अभिप्राय नहीं कि काव्य में प्रस्तुत अर्थ या तथ्य ध्यान देने की वस्तु नहीं। कभी कभी सीधी-सादी प्रस्तुत वस्तु या अर्थ ही से भाव की व्यञ्जना हो जाती है। कभी वाच्यार्थं से व्यजित वस्तु निकालनी पड़ती है। क्या यह कहने की आवश्यकता है कि काव्य-मीमांसा की यह वही पद्धति है जो हमारे यहाँ स्वीकृत है । आजकल पाश्चात्य वाद-वृक्षों के बहुत-से पत्ते--कुछ हरे नोचे हुए, कुछ सूखकर गिरे पाए हुए---यहाँ पारिजात-पन्न की तरह ग्रदर्शित किए जाने लगे हैं, जिससे साहित्य के उपवन में बहुत गड़बड़ी दिखाई देने लगी है। इन पत्तों की परख के लिए अपनी आँखें खुली रखने और उन पेड़ो की परीक्षा करने की आवश्यकता है जिनके वे पत्ते हैं। पर यह बात हो नहीं रही है। योरप के समीक्षा-क्षेत्र में नवीनता और अनूठेपन की झोक में काव्य के सम्बन्ध में न जाने कितनी अत्युक्त बातें चला करती हैं --जैसे “कला कला ही के लिए। है," "अभिव्यञ्जना ही सब कुछ है, अभिव्यंग्य कोई वस्तु नही, “काव्य में अर्थ ध्यान देने की कोई वस्तु नहीं, “काव्य में वृद्धि घातक होती है” इत्यादि इत्यादि । “कला कला ही के लिए का शोर