पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१९०

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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद १८३ जिसका वाच्यार्थ बहुत ही अत्युक्त, व्याहत और बुद्धि को सर्वथा अग्राह्य है । उर्मिला जब आप मिट ही जायगी तब अपने प्रिय लक्ष्मण को वन से लाएगी क्या है पर सारा रस, सारी रमणीयता, इसी व्याहत और बुद्धि को अग्राह्य वाच्यार्थ मे है , इस योग्य और बुद्धिग्राह्य व्यंग्यार्थ में नहीं कि “उर्मिला को अत्यन्त औत्सुक्य है। इससे स्पष्ट है कि वाच्यार्थ ही काव्य होता है, व्यंग्यार्थ यो लक्ष्यार्थ नही । हिन्दी के पुराने कवि देव ने शायद यही, समझकर काव्य में केवल वाच्यार्थ माना था ।* तो फिर लक्ष्यार्थ या व्यंग्यार्थ का काव्य में प्रयोजन क्या है ? वाच्यार्थ बाधित, व्याहत यो अनुपपन्न होने पर लक्षण और व्यञ्जना के सहारे योग्य और बुद्धिशाह्य अर्थ प्राप्त करने का प्रयास क्यों किया जाता है ? इस प्रयास का अभिप्राय यही है। कि काव्य की उक्ति चाहे कितनी ही अतिरञ्जित, दूरारूढ़ और उड़ान वाली हो–उसका वाच्यार्थ चाहे कितनी ही प्रकरणच्युत, व्याहत और असम्भव हो–उसकी तह में छिपा हुआ कुछ न कुछ योग्य और बुद्धिग्राह्य अर्थ होना ही चाहिए। योग्य और बुद्धिग्राह्य अर्थ प्राप्त करने के लिए चाहे कितनी ही मिट्टी मिट्टी मैं तार्किकों की बुद्धि से कह गया, रसज्ञो और सहृदयो की दृष्टि से सोना या रत्न कहना चाहिए—खोदकर हटानी पड़े, उसे प्राप्त करना चाहिए । अब पूछिए। कि जो योग्य और बुद्धिग्राह्य अर्थ खोदकर निकाला जाता है उसका काव्य में प्रयोजन क्या है, वह किस काम आता है। काव्य तो वह है नही , काव्य तो है अयोग्य, अनुपपन्न, बुद्धि को अग्राह्य उक्ति । सुनिए, वह काव्य नहीं, “काव्य को धारण करनेवाला सत्य है। जिसकी देखरेख में काव्य मनमानी क्रीड़ा कर सकता है। व्यञ्जना -

  • [ ‘अभिधा' उत्तम काव्य है, मध्य लच्छना लीन ।

अधम व्यंजना रस बिरस, उलटी कहत नवीन ॥]