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चिन्तामणि

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१८४ चिन्तामणि करनेवाली उक्ति की साधुता और सचाई की परख के लिए उसको सामने रखने की आवश्यकता होती है। यह आवश्यकता अधिकतर समीक्षको और आलोचको को पड़ती है। वे उस सत्य के साथ किसी उक्ति का सम्बन्ध देखकर यह निर्णय करते है कि उस उक्ति का स्वरूप ठीक-ठिकाने का है या ऊटपटॉग । इस प्रकार यहाँ के साहित्यमीमांसको की दृष्टि में काव्य मे योग्य अर्थ होना अवश्य चाहिए-- योग्यता चाहे खुली हो या छिपी हो , अत्यन्त अयोग्य और असम्वद्ध प्रलाप के भीतर भी कभी कभी काव्य के प्रयोजन भर को योग्यता छिपी रहती है-जैसे, शोकोन्मत्त को वियोगविक्षिप्त के प्रलाप में । शोक की विहलता या वियोग की व्याकुलती ही योग्यता है। | काव्य के साथ अर्थ की योग्यता अर्थात् बुद्धि का कितना और किधर से लगाव होता है, इस विषय में हमारे यहाँ का यही विवेचन समझना चाहिए। ऊपर काव्य र कला के सम्बन्ध में समय-समय पर फैशन की तरह चलनेवाले नाना वादो, प्रवाद और अपवादो की चर्चा की जा चुकी हैं, जिनके बहुत-से वाक्यखण्ड हमारे वर्तमान साहित्य के क्षेत्र में भी मत्रों की तरह जपे जाने लगे हैं। इस प्रसङ्ग में एक बात की ओर ध्यान देना सबसे पहले आवश्यक है। योरप में कला और काव्य-समीक्षा के बड़े बड़े सम्प्रदाय इटली और फ्रांस से चलते रहे हैं । इटली वहुत दिनो से चित्रकारी, मूर्तिकारी, नक्काशी, वेलझूटो की इमारती सजावट आदि के लिए प्रसिद्ध चला आ रहा है । इन्हीं कलाओं के बीच काव्य की भी गिनती की गई । फ्ल यह हुआ कि काव्य के स्वरूप के सम्बन्ध में भी नकाशी और वेलबूटो की सी भावना जड़ पकड़ती गई। काव्य का प्रभाव भी उसी प्रकार का समझा जाने लगा जिस प्रकार का वेल नूटो की सजावट और नक्काशी का पड़ता है। इससे अधिक गम्भीर श्रेणी का प्रभाव हुँढने की आवश्यकता धीरे धीरे दूर सी होने लगी । वेलबूटो की सजावट और