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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद

नकाशी मै जिस ढंग से अनुरञ्जन करनेवाला सौन्दर्य-विधान होता है उसी ढंग से अनुरजन करनेवाला सौन्दर्य-विधान काव्य में भी समझा जाने लगा । अतः जिस प्रकार बेलबूटे और नकाशी का सम्बन्ध जगत् या जीवन की किसी वास्तविक दशा, स्थिति या तथ्य से नहीं होता, उसी प्रकार काव्य का भी नहीं होता। शिल्पकार यो या कलाकार के मन में सौन्दर्य की भावनाएँ जिन रूप-रेखाओ या आकारों में प्रस्फुरित होती हैं उन्ही रूपों और आकारो को वह बेलबूटो और नक्काशियों में अभिव्यजित कर देता है। वे बेलबूटे कल्पना की स्वतन्त्र सृष्टि होते है--सृष्टि के किसी खण्ड के ठीक-ठीक अनुकरण नहीं । जीवन के किसी वास्तविक तथ्य, भाव (मनोविकार) या विचार के रूप में उनका अर्थ ढुंढना व्यर्थ है ! अपने अर्थ वे आप ही हैं। यही बात भव्य के सम्बन्ध में भी समझी जाने लगी। मेरे देखने में कला कला ही के लिए है," कला कल्पना की नूतन सृष्टि में है, प्रकृति के ज्यो के त्यो चित्रण में नही,” "काव्य कल्पना का लोक है—ये सब उक्त वेल बूटेवाली हल की धारणा के कच्चे-बच्चे है। इस धारणा को बहुत दूर तक घसीटकर इसे शास्त्रीय रूप देने का सबसे प्रकाण्ड प्रयास इटली के क्रोचे ( Croce ) ने अपने *सौन्दर्य-शास्त्र में किया जिसको प्रभाव केवल काव्य-चर्चा में ही नहीं , काव्यरचना में भी बहुत कुछ दिखाई पड़ता है। उसने ‘अभिव्यञ्जनवाद' (Expressionisiri) का प्रवर्तन किया, जिसके अनुसार कला मे अभिव्यञ्जना ही सब कुछ है—अभिव्यञ्जना से अलग कोई और अभिव्यंग्य वस्तु या अर्थ नहीं होता। काव्य की गिनती भी कलाओ में ही की गई है । अतः काव्य में उक्ति से अलग कोई दूसरा अर्थ—दूसरी वस्तु, तथ्य, या भाव नहीं होता । काव्य की सक्ति किसी दूसरी उक्ति की प्रतिनिधि नहीं । जो अर्थ किसी उक्ति के