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चिन्तामणि

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१८६ चिन्तामणि • शब्दो से निकलता है उसका सम्बन्ध किसी दूसरे अर्थ से नहीं होता। साहित्य की परिभापा में इसे यो कह सकते है कि काव्य मे वाच्यार्थ का कोई व्यंग्यार्थ नहीं होता । । अत्र यह देखिए कि उक्त 'वाद' के भीतर प्रकृति की नाना वस्तुओ, दृश्यों और व्यापारो तथा हृदय के रति, क्रोध, शोक इत्यादि अनेक भावो का क्या स्थान ठहरता है । वे केवल उपादान मात्र रह जाते हैं। कुछ फूल-पत्तियों, पशु-पक्षियो इत्यादि के रंग और आकार लेकर जिस प्रकार मनमाने बेलबूटे और नक्काशियाँ बनाई जाते हैं उसी प्रकार काव्य में भी वाह्य प्रकृति से फूल-पत्ती, नदी-नालो, पर्वत-समुद्र, बुलबुल, कोकिल, चातक, भ्रमर, चॉदनी, समीर इत्यादि , मनुष्य के व्यापारों से रोना, गाना, हँसना, कृदना इत्यादि ; शरीर से मुख,कान, नाक, अनु, श्वास, उल्लास इत्यादि , मनुष्यों की अन्तःप्रकृति से रति, हास, शोक, भय इत्यादि लेकरं और उनका मनमाना योग करके एक अनूठी स्वृष्टि, प्रकृति से सर्वथा स्वतन्न एक नई रचना, खड़ी की जाती है । इन अनेक पदार्थों का वर्णन या इन अनेक भावो की व्यञ्जना, काव्य का लक्ष्य नहीं होता है ये तो उपादान मात्र हैं--खिलोने बनानेवाले कुम्हार की मिट्टी और रंग हैं। अतः प्रस्तुत-अप्रस्तुत की, अलंकार-अलंकार्य का कोई सवाल नही । यहाँ से अव स्पष्ट देखा जा सकता है कि उपर्युक्त वाद वेलबूटो और नक्काशियो के सम्बन्ध मे तो बिल्कुल ठीक घटता है, पर काव्य की सच्ची मार्मिक भूमि से बहुत दूर रहता है। उसे दृष्टि में रखकर जो चलेगा उसके निकट काव्य का सहृदयता, भावुकता और मार्मिकता से कोई सम्बन्ध नही । उक्त वाद के प्रभाव से प्रस्तुत की हुई रचनाओं को देखकर कोई पूछ सकता है कि क्या कवि के लिए अनुभूति सचमुच आवश्यक है। यदि काव्य की तह में जीवन का कोई सच्चा मार्मिक तथ्य, सच्ची भावानुभूति, नही तो उसका मूल्य मनोरञ्जन