पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१९४

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१८७ काव्य में अभिव्यञ्जनाचाद करनेवाली सजावट या खेल-तमाशे के मूल्य से कुछ भी अधिक नहीं । पर उक्त वाद के प्रतिपादक ने उसका मूल्य दूसरी दुनिया में ढूंढ निकालने की चेष्टा की है। उसने कला की अभिव्यञ्जना के इस व्यवसाय को वाह्य प्रकृति और अन्तःप्रकृति दोनो से परे जो आत्मा है, उसकी अपनी निज की क्रिया कहा है-इस जगत् और जीवन से स्वतन्त्र । यहाँ पर यह सूचित कर देना अविश्यक है कि क्रोचे को यह आत्मावाली बात मिली कहाँ से । यह पुराने ईसाई भक्त सन्तो से मिली है जिन्हें दिव्य अभास हुआ करता था और जिसका उल्लेख आगे होगा । “काव्य में रहस्यवाद' नामक पुस्तक में मैं दिखा चुका हूँ कि किस प्रकार ईसा की १९ वीं शताब्दी के आरम्भ में घोर रहस्यवादी अँगरेज़ कवि इलेक ने सन्तो के अभास वाली बात को पकड़कर मनुष्य की कल्पना को इलाम के दर्जे को पहुँचाया था । उसने कहा था “कल्पना का लोक नित्य लोक है । वह शाश्वत और अनन्त है। उस नित्य लोक में उन सब वस्तुओ की नित्य और पारमार्थिक सत्ताएँ हैं जिन्हें हग प्रकृतिरूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित देखते हैं ।” परीक्षा के लिए क्रोचे के अभिव्यञ्जनावाद का संक्षेप में परिचय दे देना, मैं समझता हूँ, अच्छा होगा । मैं कई जगह दिखा चुका हूँ कि किस प्रकार योरप के समीक्षा-क्षत्र:मे, इधर बहुत दिनो से काव्य के, कल्पना और भाव इन दोनो अवयवों में से केवल ‘कल्पना कल्पना की ही पुकार सुनाई पड़ती है। कल्पना है काव्य का क्रियात्मक वोध-पक्ष जिसका विधान हमारे यहाँ के रसवादियों ने भाव के योग में ही काव्य के अन्तर्भूत माना है। अलंकारवादी या वक्रोक्तिवादी अलवत ज्ञानात्मक अवयव ही से प्रयोजन रखते हैं। जैसा कि

  • [ देखिए पीछे पृष्ठ १३५-१२६ । ]