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चिन्तामणि

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१८८ चिन्तामणि ऊपर दिखाया जा चुका है क्रोचे काव्य में कल्पना की क्रिया और उसके वोध ही को सब कुछ मानता है अतः कलानुभूति या काव्यानुभूति को वह ज्ञान-स्वरूप ही मानकर चला है । उसका सिद्धान्त संक्षेप मे हम नीचे देते हैं । उसने कला-सम्बन्धी ज्ञान को तर्क-सम्बन्धी ज्ञान से इस प्रकार अलग किया है ( १ ) कला-सम्बन्धी ज्ञान है-स्वयप्रकाश ज्ञान ( Intuition ), कल्पना में उडून ज्ञान, व्यक्ति का संकेतग्रह अर्थात् कियो एक विशेष वस्तु का ज्ञान !, ( २ ) तर्क सम्बन्धी ज्ञान हैं—प्रमा (Concept ) निश्चयात्मिका बुद्धि द्वारा प्राप्त ज्ञान, भिन्न भिन्न व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्ध का ज्ञान अर्थात् जाति का संकेनग्रह । स्वयंप्रकाश ज्ञान का अभिप्राय हैं मन में श्राप से आप---विना बुद्धि की किया या सोच-विचार के---उठी हुई मूर्त भावना, जिसकी वास्तविकताअवास्तविकता का कोई सवाल नहीं । यह सूर्त भावना या कल्पना आत्मा की अपनी क्रिया है जो दृश्य जगत् के नाना रूपों और व्यापारों को ( अर्थात् मन में सञ्चित उनको छापा और सस्कारों को ) द्रव्य या उपादान की तरह लेकर हुश्रा करती हैं । दृश्य जगत् के नाना रूप-यापार हैं द्रव्य ( Matter ) । इसी द्रव्य के सहारे प्रात्मा की क्रिया नृर्त रूप में अपना प्रकाश करती है। ‘दय' की प्रतीति मात्र तो जडत्व या निष्क्रियता है-ऐसी प्रतीति है जो । विवश होकर करनी ही पड़ती है। मनुष्य को प्रारमा द्रव्य की प्रतीति सानु करती है, उसकी सृष्टि नहीं करती । प्रारमा को अपनी स्वतन्त्र क्रिया है। कल्पना, जो रूप का सूक्ष्म साँचा खडा करती है और उस साँचे में स्थूल दय को ढालकर अपनी कृति को गोवर या व्यक्त करता है। वह ‘सोंचा, मात्मा की कृति या अध्यात्मिक वस्तु होने के कारण, परमार्थतः एकरस और स्थिर होता है। उनकी अभिव्यञ्जना में जो नानात्व दिखाई पडता है वह स्थून 'इ' के कारण जो परिवर्तनशील होता है। कला के क्षेत्र में यही साँचा' ( Form ) सत्र कुछ है, द्रव्य या सामग्री ( Matter ) ध्यान देने की वन्तु नहीं ।

  • An aestlietic fact is form and nothing else