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चिन्तामणि

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. १६८ ' चिन्तामणि रस-निरूपण:मे जो ‘विभाव' कहा गया है वही कल्पनात्मक या ज्ञानात्मक अवयव है ओ भाव का संचार करता है । कवि और पाठक दोनो के मन में कल्पना कुछ मूर्त रूप या आलम्वन खड़ा करती है जिसके प्रति किसी भाव का अनुभव होता है। उस भाव की अनुभूति के साथसाथ आलम्बन का बोध या ज्ञान भी बना रहता है । आलम्वन चाहे व्यक्ति हो, चाहे वस्तु, चाहे व्यापार या घटना, चाहे प्रकृति का कोई खण्ड। इससे यह स्पष्ट व्यजित है कि भावानुभूति के योग में ही कल्पना का स्थान काव्य के विधान में हमारे यहाँ स्वीकार किया गया है। वो तो मूर्त रूप मन में वरावर उठा करते हैं—कभी कभी ये “ रूप परस्पर अन्वित होकर भी कोई ऐसी योजना मन में नहीं लाते जिसे कोई काव्य कह सके-जैसे, किसी मशीन के सारे कलपुरजो का रूप । कभी कभी मूर्त भावना या कल्पना वैज्ञानिक या दार्शनिक विचार में प्रयोजनीय होती है। अतएव कान्य-विधायिनी कल्पना - वही कही जा सकती है जो या तो किसी भाव द्वारा प्रेरित हो अथवा भाव का प्रवर्तन और संचार करती हो । सब प्रकार की कल्पना काव्य की प्रक्रिया नही कही जा सकती है अतः काव्य में हृदय की अनुभूति अङ्गी है, मूर्त रूप अङ्गभाव प्रधान है, कल्पना उसकी सहयोगिनी ।। | कल्पना में उठे हुए रूपों की प्रतीति ( Perception ) मात्र को ‘ज्ञान' कहना उसे ऊँचे दर्जे को पहुंचाना है। योरप में पुराने जमाने के ईसाई सन्तो को, जब वे ईश्वर-प्रेम में बेसुध और उन्मत्त होते थे, अनेक प्रकार के आध्यात्मिक आभास' हुआ करते थे जिन्हें वे अटपटी बानी मे, अध्यवसित विचित्र रूपको या अन्योक्तियो द्वारा प्रकट किया करते थे। उनके तरह तरह के अर्थ लगाए जाते थे पर लखै कोई बिरलै ।” उन ‘आभासों के सम्बन्ध में कहा यह जाता था कि वे सूक्ष्म अध्यात्मिक जगत् की बातें है, अतः स्थूल जगत् के नाना