पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२०७

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चिन्तामणि

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२०० चिन्तामणि अव्यक्त और अनिर्वचनीय का सहारा लेने के लिए दिया गया है । जिसे क्रोचे आत्मा के कारखाने से निकले हुए रूप कहता है, वे वास्तव में वाह्य जगत् से प्राप्त किए हुए रूप है। इन्द्रियज ज्ञान के जो संस्कार ( छाप ) मन में संचित रहते हैं वे ही कभी बुद्धि के धक्के से, कभी भाव के धक्के से, कभी यो ही, भिन्न भिन्न ढंग से अन्वित होकर जगा करते हैं । यही मूर्त भावना या कल्पना है। यह अन्विति या योजना बारा जगत् से प्राप्त रूप के ढंग पर होती है। जिसमें एक-एक रूप की सत्ता अलग-अलग बनी रहती है। इस अन्वित रूप-समूह को आध्यात्मिक साँचा' कहना और पृथक्-पृथक् रूपो को उस साँचे में भरा जानेवाला मसाला' बताना, वितण्डावाद के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है ? किसी सॉचे में जो वस्तुएँ भरी जायेंगी, वे घुल-पिसकर गीली मिट्टी या गारा हो जायेंगी, उनके पृथक्-पृथक् रूप कहाँ रह जायेंगे ? पर कल्पना में जो रूप-समष्टि खड़ी होती है, उसके अन्तर्भूत रूपो की अलग-अलग प्रतीति होती है। कल्पना में आए हुए रूप आध्यात्मिक जगत् के है, बाह्य जगत् से प्राप्त नहीं हैं, पुराने ईसाई सन्तों और ब्लेक के इसी प्रवाद को ग्रहण करने के कारण ‘साँचो' की विलक्षण उद्भावना की गई है। बात यह है कि उक्त प्रवाद को सुनकर एक साधारण समझ का आदमी भी शङ्का कर सकता है कि यदि कल्पना में आए हुए रूप वाह्य जगत् के रूप की छाप नहीं है; खास आत्मा से निकले हुए है, तो उनकी उद्भावना जन्मान्धो को भी वैसी ही होनी चाहिए जैसी अॉखवालो को । इसके समाधान का प्रयास चट यह कहकर किया जायगा कि आत्मा से केवल सुक्ष्म ‘सॉचे निकला करते है जो बाह्य जगत् से प्राप्त मूर्त द्रव्य के भराव के बिना व्यक्त ही नहीं हो सकते है जन्मान्धो की आत्मा से भी ये सूक्ष्म सॉचे निकलते हैं, पर अव्यक्त ही रह जाते हैं। अब इस अव्यक्त का प्रमाण माँगने कौन जायगा ?