पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२०८

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२०१ काव्य में अभिव्यञ्जनावाद क्रोचे ने जिसे बाह्य जगत् था जीवन से इकट्ठा किया हुआ ‘द्रव्य या उपादौन ( मसाला ) कहा है उसके अन्तर्गत प्रकृति के नाना रूपव्यापार, जीवन की भिन्न भिन्न घटनाएँ या तथ्य सब कुछ है। जब कि ये ‘द्रव्य' या उपादान मात्र हैं तब कला की अभिव्यञ्जना में इनकी वास्तविकता-अवास्तविकता, औचित्य-अनौचित्य, योग्यताअयोग्यता आदि का विचार अपेक्षित नही । योग्यता-अयोग्यता का विचार कहाँ तक और किस रूप में अपेक्षित होता है, इसका विचार मैं शब्द-शक्ति के प्रसङ्ग में अर्थ की योग्यता के अन्तर्गत पहले कर चुका हूँ । अब औचित्य-अनौचित्य लीजिए । लोक की रीति-नीति, आचार-व्यवहार, की दृष्टि से अनौचित्य शिल्प अर्थात् बेल-बूटे, नक्काशी आदि की सौन्दर्य-भावना में तो सचमुच कोई बाधा नहीं डालता, पर काव्य का प्रभाव कभी कभी बहुत हलका कर देता है। यही बात हमारे यहाँ ‘रसाभास' और भावाभास के अन्तर्गत सूचित की गई है। • काव्य को हम जीवन से अलग नहीं कर सकते । उसे हमू जीवन पर मार्मिक प्रभाव डालनेवाली वस्तु मानते है । कला कला ही के लिए' वाली बात को जीर्ण होकर मरे बहुत दिन हुए। एक क्या कई क्रोचे उसे फिर जिला नहीं सकते । काव्यानुभूति जीवन-क्षेत्र में संचित अनुभूतियो का ही रसात्मक रूप है । अत्यन्त अनूठी उक्ति द्वारा कही हुई दुराचार की बात से अनुरञ्जन हो सकता है,पर उसमें कुछ विरक्ति भी मिली रहेगी । यदि भाव-व्यञ्जना में भाव अनुचित हैं, ऐसे के प्रति है जैसे के प्रति न होना चाहिए, तो ‘साधारणीकरण न होगा, अर्थात् श्रोता या पाठक का हृदय उस भाव की रसात्मक अनुभूति - ग्रहण न करेगा ; उस भाव में लीन न होगा। 'कला' कला ही के लिए इस पुराने प्रवाद ने कुछ दिनों से यह सवाल खड़ा कर रखा है कि सदाचार का काव्य में कोई स्थान है या

  1. [ देखिए पीछे पृष्ठ १७८-१८४ ]