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चिन्तामणि

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२०४ चिन्तामणि उस काव्य का पूरा रसात्मक ग्रहण वह न कर सकेगा । कविता वही सार्थक है जो दूसरे के हृदय में जाकर अपना प्रकाश कर सके, जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है--

    • मनि, मानिक, मुकता-छवि जैसी ।। अहि, गिरि, गज-सिर सोह न तैमी । नृप-क्रोिट तरुनी-तनपाई । लहहिं सकल सोभा अधिकाई। तैसः सुकवि-कवित बुध कहीं ।

उपजहिं अनत, अनत छवि लहहीं ।” हमारे यहाँ रस के प्रकरण के आरम्भ में ही सच्ची रस की अनुभूति केसे होती है यह बताते हुए ‘सत्त्वोद्रकात्' कहकर झगड़ा साफ कर दिया गया है। रसानुभूति के समय प्रकृति सत्त्वस्थ रहती हैं, रजोगुण और तमोगुण का प्रभाव उस समय नही रहता । अब रहीं यह बात कि काव्य की अनुभूति और वस्तु है भाव की अनुभूति और अर्थात् काव्यानुभूति भावानुभूति के रूप में नहीं होती क्रोचे का तर्क यह है कि भावानुभूति सुखात्मक या दुःखात्मक हुआ करती है। शोक, घृणा, भय आदि दुःखात्मक अनुभूतियाँ है, पर इनकी व्यञ्जना काव्य में होती है। यदि भावानुभूति के रूप में काव्यानुभूति माने तो इनकी व्यञ्जना की अनुभूति दुःखात्मक होगी । पर इनकी व्यञ्जनावाले काव्य भी लोग बराबर पढ़ते हैं, सुनते हैं। क्या लोग व्यर्थ वैठे विठाएदुःख मोल लेते है ? क्रोवे द्वारा उपस्थित की हुई वाधा बहुत पुरानी है। हजारो वर्ष से लोग इसके समाधान का प्रयत्न करते आए है। हमारे यहाँ के साहित्य-ग्रन्थो से भी ऐसा प्रयत्न हुआ है, पर मुझे यह कहने में संकोच नही कि उससे समाधान नहीं होता । शङ्का का समाधान तो नही होता' पर यह भासित अवश्य हो जाता है कि काव्यानुभूति भावानुभूति के रूप में ही होती