पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२१२

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| काव्य में अभिव्यञ्जनवाद २०५ है। बात यह है कि पूर्व पक्ष बहुत ही सटीक है । वह यह कि यदि रसानुभूति आनन्दस्वरूप ही है तो करुणरस के नाटक आदि पढ़ने देखने से श्रोताओ या दर्शको को ऑसू क्यों आ जाते हैं ? ऑसू का आना भावोद्रेक का बाह्य लक्षण (Symptonn ) है । अतः मनोविज्ञान की दृष्टि से यह तो साफ प्रकट है कि काव्यानुभूति भावानुभृति के रूप में ही होती है । रहा यह कि वह आनन्दस्वरूप होती है। या नहीं। मुझे इस बात का विशेष अग्रिह नही । मनोविज्ञानियों ने भी इस विषय को विचार के लिए लिया है। कुछ ने तो काव्य-श्रवण से उत्पन्न भावानुभूति को क्रीड़ावृत्ति ( Play-innpulse ) मानकर सन्तोष किया है, कुछ ने अनुभूत्याभास ( Apparetit feelings ) कहकर । मेरा अपना विचार कुछ और है । मैं इस देश को हृदय की मुक्त दशा मानता हूँ--- ऐसी मुक्त दशा जिसमें व्यक्तिबद्ध घेरे से छूटकर वह अपनी स्वच्छन्द भावात्मिका क्रिया में तत्पर रहता है। इस दशा को प्राप्त करने की प्रवृत्ति होना कोई आश्चर्य की बात नहीं, चाहे इस दशा को आप आनन्द' कहिए या न कहिए । 'आनन्द' कहिएगा तो उसके पहले ‘अलौकिक लगाना पड़ेगा और कहना न कहना बराबर हो जायगा । | भाव या हृदय की अनुभूति ऐसी वस्तु से, जिसका सच्ची कविता के साथ नित्य सम्बन्ध है, पीछा छुड़ाना क्रोचे के लिए सहज न था । एक स्थान पर उसकी सत्ता उसे स्वीकार करनी पड़ी है । वह कहता है “द्रव्य वह भावात्मकता है जो कला के रूप में निरूपित न • हुई हो ।”* 'द्रव्य' से उसका अभिप्राय मन के भीतर वाह्य प्रकृति के रूप-संस्कारों ( छापों ) से है, यह मैं सूचित कर आया हूँ । मन में संचित बाह्य जगत् के नाना रूपों की भावात्मकता का मतलब क्या हो ।

  • Matter 1s emotivity not aestlietically elaborated,