पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२१४

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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद २०७ इनको अन्तर्भूत करके संसार की नई पुरानी सब प्रकार की कविताओं की वहुत ही सूक्ष्म, मार्मिक और स्वच्छ आलोचना हो सकती है। रिचर्डस (I. A Richards) ऐसे वर्तमान अंगरेज़ समालोचक किस प्रकार अब समीक्षा में बहुत कुछ भारतीय पद्धति का अवलम्वन करके कूड़ा-करकट हटा रहे हैं, यह मैं शब्द-शक्ति के प्रसङ्ग में दिखा चुका हूँ। खैर, अब प्रस्तुत विषय पर आना चाहिए । | अलंकार-अलंकार्य का भेद मिट नहीं सकता । शब्द-शक्ति के प्रसंग में हम दिखा आए है कि उक्ति चाहे कितनी ही कल्पनामयी हो उसकी तह मे कोई ‘प्रस्तुत अर्थ’ अवश्य ही होना चाहिए। इस अर्थ से या तो किसी तथ्य की या भाव की व्यञ्जना होगी । इस ‘अर्थ’ का पता लगाकर इस बात का निर्णय हो कि व्यञ्जना ठीक हुई है या नहीं। अलंकारो ( अर्थालंकारो ) के भीतर भी कोई न कोई अर्थ व्यंग्य रहता है, चाहे उसे गौण ही कहिए। उदाहरण के लिए पन्त जी की ये पंक्तियाँ लीजिए-----

  • बाल्य-सरिता के कुलों से | खेलती थी तरङ्ग सी नित।

---इसी में था असीम अवसित ।" इसका प्रस्तुत अर्थ इस प्रकार कहा जा सकता है-वह् बालिका अपने बाल्य-जीवन के प्रवाह की सीमा के भीतर उछलती कूदती थी । उसके उस बाल्य-जीवन में अत्यन्त अधिक और अनिर्वचनीय आनन्द प्रकट होता था ।” विना इस प्रस्तुत अर्थ को सामने रखे, न तो कवि की उक्ति की समीचीनता की परीक्षा हो सकती है, न उसकी रमणीयता के स्थल ही सूचित किए जा सकते हैं। अब यह देखिए कि उक्त प्रस्तुत अर्थ को कवि की उकि सुन्दरता के साथ अच्छी तरह व्यञ्जित कर सकी