पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२१५

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चिन्तामणि

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२०६ चिन्तामणि है या नहीं । पहले ‘बाल्य-सरिता' यह रूपक लीजिए। कोई अवस्था स्थिर नहीं होती, प्रवाह-रूप में बहती चली जाती है, इससे साम्य ठीक है । अव नदी की मूर्त भावना का प्रभाव लीजिए । नदी की धारा देखने से स्वच्छता, द्रुतगति, चपलता, उल्लास यादि की स्वभावतः भावना होती है, अतः प्रभाव भी वैसा ही रम्य है जैसा भोलीभाली स्वच्छ-हदय प्रफुल्ल और चञ्चुल वालिका को देखने से पड़ता है। अतः कह सकते हैं कि यह रूपक समीचीन और रम्य है । बाल्यावस्था या कोई अवस्था हो उसकी दो सीमाएं होती हैं-एक सीमा के पार व्यतीत अवस्था होती है दूसरी के पार आनेवाली अवस्था । अतः दो कृलो’ भी बहुत ठीक हैं । तरङ्ग नदी की सीमा के भीतर ही उछलती है, वालिको भी बाल्यावस्था के बीच स्वच्छन्द क्रीड़ा करती है। अतः ‘तरङ्ग सी' उपमा भी अच्छी है । असीम अर्थात् ब्रह्म अनन्तअानन्द-स्वरूप है और उस वालिका में भी अपरिमित आनन्द का आभास मिलता है अतः यह कहना ठीक ही है कि मानो उस संसीम बाल्य-जीवन के भीतर असीम आनन्द-स्वरूप ब्रह्म ही आ बैठा है । इसलिए यह प्रतीयमाने उत्प्रेक्षा भी अनूठी है क्योकि इसके भीतर 'अधिक' अलंकार के वैचित्र्य की भी झलक है । । | यह सब समीक्षा प्रस्तुत-अप्रस्तुत की भेद समझकर प्रस्तुत अर्थ को सामने रखने से ही सम्भव है। यह लटकी कि ‘कला की अभिव्यञ्जना का अर्थ क्या ?? चल नहीं सकता । पुराने कलावाद के प्रचारक मि० स्पिगर्न भी काव्य की समीक्षा में यह देखना आवश्यक समझते हैं कि कवि क्या करने बैठा था और कहाँ तक सफलता के साथ उसे वह कर सका । अव इस प्रकार प्रस्तुत अर्थ तक पहुँचे विना ‘कवि क्या करने बैठा था, इसका पता कैसे लग सकता है ? इस प्रस्तुत अर्थ को सामने रखे बिना उस कविता की समालोचना किस रूप में हो सकती है ? इसी रूप में न कि 'वाल्यसरिता--