पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२१६

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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद २०६ वाह ! क्या सरलता की स्रोतस्वती बहाई गई है जिसकी मधुमयी तरङ्गमाला में मन स्वर्गलोक का अञ्चल चूम आता है । असीम अवसित-देखिए कल्पना किस प्रकार इस ससीम की दीवारे फॉद कर असीम से जा भिड़ी और उसे ससीम के भीतर खींच लाई और संपुटित कर दिया । * रस-अलंकार आदि के नाना भेद-निरूपण क्रोचे के अनुसार कला के निरूपण में कोई योग न देकर तर्क या शास्त्रपक्ष में सहायक होते हैं। उन सबका मूल्य केवल वैज्ञानिक समीक्षा में है, कलानिरूपिणी समीक्षा में नहीं । इस सम्बन्ध में मेरा वक्तव्य यह है कि वैज्ञानिक या विचारात्मक समीक्षा ही कला-निरूपिणी समीक्षा है । उसी का नाम समीक्षी है। उसके अतिरिक्त जो कल्पनात्मक या भावात्मक पदावली व्यवहृत होगी वह समीक्षा न होगी , किसी कविता का आधार लेकर खड़ा किया हुआ एक हवाई महल होगा, ‘धूएँ का धरहरा' होगा । किसी उक्ति के सम्बन्ध में पूछा जायगा। कि कैसी है, तो कहा जायगा कि “इसे पढ़कर ऐसी भावना होती है कि मानो स्वर्गङ्गा के सुनहरे तट पर कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर पीयूष पान करती हुई किसी अप्सरा ने मेरे ऊपर भूल से कुल्ला कर दिया ।.'कलावाद’ और ‘अभिव्यञ्जनवाद' के प्रभाव से योरप में समीक्षा के क्षेत्र में इधर तरह-तरह की अर्थशून्य पदावली प्रचलित होती आ रही थी-जैसे, ‘कला कला के लिए के बड़े भारी प्रतिपादक डाक्टर ब्रेडले की यह प्रशस्ति कविता एक आत्मा है । पता नहीं कहाँ से आती है। न तो हमारे आदेश पर वह बोलेगी, न हमारी भाषा में बोलेगी । वह हमारी दासी नहीं, हमारी स्वामिनी है।” इस प्रकार की वाक्य-रचना से काव्य के स्वरूप-बोध में क्या सहायता पहुँच सकती है ? समीक्षा के नाम पर इस प्रकार अर्थशून्य वागाडम्बर की चाल निकलती देख अत्यन्त -