पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२१९

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चिन्तामणि

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२१२ चिन्तामणि पड़ा है। यदि इन दोनो वादो से उत्पन्न प्रवृत्तियों वही की वही रह जाती, बंग-भापा के प्रसाद से हमारे हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में भी न प्रकट होती तो मुझे इनके उल्लेख द्वारा आप लोगों का अमृल्य समय नष्ट करने की कोई आवश्यकता न होती । अब मैं नीचे संक्षेप में इन प्रवृत्तियों का उल्लेख करता हूँ। ( १ ) प्रस्तुत मार्मिक रूपविधान के प्रयन्न का त्याग और केवल प्रचुर अप्रस्तुत रूपविधान मे ही प्रतिभा या कल्पना का प्रयोग । ( २ ) जीवन के किसी मार्मिक पक्ष को लेकर भाव या मार्मिक अनुभूति में लीन करने का प्रयास छोड केवल उक्ति में बैंलक्षण्य लाने का प्रयास ।। ( ३ ) जीवन की विविध मार्मिक दशाओं को प्रत्यक्ष करनेवाले प्रबन्ध-काव्यों की ओर से उदासीनता और प्रेम-सम्बन्धी मुक्तको या प्रगीत मुक्तको ( ILyrics ) की ओर अत्यन्त अधिक प्रवृत्ति । ( ४ ) अनन्त', असीम ऐसे कुछ शब्दो द्वारा उन पर आध्यात्मिक रंग चढ़ाने की प्रवृत्ति ।। ( 9 ) काव्य के स्वरूप के सम्बन्ध में शिल्प अर्थात् बेलबूटे और नफाशीवाली हलकी धारणा । ( ६ ) समालोचना का हवाई होना और विचारशीलता का ह्रास । अब इनमे से एक-एक को लेकर कुछ विचार करने की आवश्यकता है। आप लोग घबराएँ न, जो कुछ कहना होगा बहुत थोड़े में कहूँगा । | इन छ बातो को अलग-अलग लेने के पहले मै यह प्रतिपादित कर देना चाहता हूँ कि हमारे यहाँ काव्य का लक्ष्य है जगत् और जीवन के मार्मिक पक्ष को गोचर रूप में लाकर सामने रखना जिससे मनुष्य अपने व्यक्तिगत सङ्कचित घेरे से अपने हृदय को निकालकर उसे विश्वव्यापिनी और त्रिकालवर्तिनी अनुभूति में लीन करे । इसी