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चिन्तामणि

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२१४ चिन्तामणि उन्हाने स्पष्ट कहा है कि धर्माचरण और शिष्टाचार हृदय के योग के विना, हर्प-पुलक के बिना, व्यर्थ है-- महिं सुमिरत, रन भिरत, देत, परत गुरु-पाय ।। तुलसी जिनहि न पुलक तन, ते जग जीवत जाय । सारांश यह कि हृदय की ऐसी भावदशा कभी कभी होती है जिसका न धर्म से विरोध होता है न ज्ञान से, और न किसी दूसरी भावदशा से । यही सामञ्जस्त्र हमारे यहाँ का मूल मन्त्र हैं। जिस काव्य में यह सामञ्जस्य न होगा उसका मूल्य गिरा हुआ होगा। धर्म के साथ हृदय के भाव या काव्य की अभिव्यञ्जना के विरोध की चर्चा पहले हो चुकी है । अव ज्ञान और भाव, बुद्धि और हृदय, के सामञ्जस्य के सम्बन्ध में थोड़ा विचार कर लेने की आवश्यकता है। इस सामञ्जस्य का अभिप्राय यह है कि बुद्धि अपना स्वतन्त्र रूप से ज्ञान-सम्पादन का कार्य करे और हृदय भाव-प्रवर्तन का। एक दूसरे के कार्य में बाधक न हों, हस्तक्षेप न करें। बुद्धि यह न कहने जाय कि हृदय क्या ? वह तो फालतू काम किया करता है। हृदय यह न कहने जाय कि बुद्धि क्या ? वृह तो सृखे लकड़ चीरा करती है। दोनो एक दूसरे के सहयोगी के रूप में काम करें । चुद्धि देश और काल के बीच हमारे ज्ञान का प्रसार वढ़ाती है । जगत् के अनेक तथ्य ऐसे होते हैं जो हमारी बाह्य इन्द्रियो तथा सामान्य स्थूल बुद्धि को प्रत्यक्ष नहीं होते । बुद्धि अपनी सूक्ष्म क्रिया द्वारा, विशेप मनन और चिन्तन द्वारा, उनका निरूपण करती है और कवि की प्रतिभा या कल्पना द्वारा उन्हें गोचर और मार्मिक रूप में सामने रखती हैं। ऐसी दशा में प्रतिभा या कल्पना अनुमान के इशारे पर चलती है। और सामान्य रूप से निरुपित तथ्य के बीच से ऐसे विशेष दृश्य की उद्भावना कर लेती है जो मर्मस्पर्शी होता है। नाना भावो के लिए आलम्बन आरम्भ में ज्ञानेन्द्रिय उपस्थित करती है ; फिर ज्ञाने