पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२२४

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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद २१७ आध्यात्मिक जगत् की कुछ बाते आभास के रूप में उन पर प्रकाशित की जाती थीं । ईसा की छठी शताब्दी से लेकर बारहवीं तेरहवी । शताब्दी तक यूनानी दर्शनो में निरूपित बातें इन्ही 'आभासो' के रूप में रहस्यदर्शी सन्त लोग कहा करते थे । * ईश्वरीय आभास का रूप देने के लिए ये बाते नाना प्रकार की अन्योक्तियो और अध्यवसित रूपको में लपेट कर विचित्र शब्दों में कही जाती थीं । अतः कबीर आदि रहस्यवादी सन्तों और योरप के रहस्यवादी कवियों की उक्तियों में जो चैलक्षण्य या विचित्र रूपक-जाल रहता है उसका भी साम्प्रदायिक कारण और इतिहास है। ईसची सन् ६०४ में सन्त ग्रेगरी ( St. Gregory ) नामक एक प्रसिद्ध महात्मा हो गए हैं । मुच्छ-उन्माद की दशा में ईश्वर का जो समागम होता है उसके सम्बन्ध में उन्होने कहा है कि साधक ईश्वर को ठीक वैसा ही नहीं देखता जैसा कि वह परमार्थतः है, बल्कि उसका सोपाधि रूप देखता है। हमारे भीतर कल्मष का जो अन्धकार रहता है वह उस शुद्ध ज्योति को ठीक ठीक हम तक पहुँचने नहीं देता।

  • The fundamental metaphysics on which the doctrine of Christian Mysticism is grounded, 15 Greek rationalistic metaphysics, formulated by Socrates and his great successors Plato, Aristotle and Plotinus God, according to this Greek interpretation, 15 Absolute Reality with no admixture of matter 1e with no potentiality or possibility of change There is, however, something in human soul which is unsundered from the Absolute, something which essentially is that Reality, [huis intellectual formulation necessarily involves a via negativaHe is not thuis, He is not this' Do

देखिए किस प्रकार इस उद्धरण में उपनिषद् के व्रह्मवाद का ही निरूपण है और 'नेति, नैति' वाक्य भी ज्यों का त्यों आया है ।