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चिन्तामणि

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२१८ चिन्तामणि हम उसे साफ साफ नहीं देख सकते, मैंने ही देख सकते है जैसे बहुत दूर की वस्तु कुछ धुंधली सी दिखाई पड़ती है। इसके उपरान्त ईसा की वारहवी शताब्दी में सन्त वरनाङ ( St. Bernard ) ने यह बताया। कि रहस्यदर्शी को ‘हाल' या प्रवेश की दशा में अध्यात्मिक ज्ञान की उपलब्धि किस ढंग से होती हैं। उन्होने कहा कि “जब साधक के हृदय-देश में ईश्वर की भेजी हुई ज्योति की किरन झलक की तरह क्षण मात्र के लिए आ जाती है तन या तो उस परम तेज की चकाचौध कम करने के लिए अथवा उसके द्वारा प्रकाशित ज्ञान को दूसरो तक कुछ पहुँचाने के योग्य बनाने के लिए, इस-प्रेपित ज्ञान या तथ्य को व्यन्त्रित करने के उपयुक्त पार्थिव जगत का कुछ अनूठा रूप-विधान (पक ) सामने आ जाता है । छलावे की तरह भासित हुए उस रूपक को ‘छाया-श्य' ( Piratitasilata ) कहते है । * इसी 'छाया-य' के लक्षणों का अनुकरण सामी ( Sernatic ) मजहुवो के भीतर चले हर भक्ति के रहस्यमार्गों में पाया जाता है । नूफियो में इसी परम्परा का निर्वाह शराव, प्याले आदि के रूपको मे मिलता है जो एक प्रकार के प्रतीक ( Synibols ) से हो गए हैं। निर्गुन-पंथ की बानियो मे---विशेषतः कबीरदास की वानी मे-जो 11 hen something from God has momentarily and, as it Acre, with the suiftiese of a flash of light, shed its ray upon e nunc in ecstacy of spirit, immediately, whether for the cnipcring of this too great redance, or for the sake of imparing it to others, there present themselves certain imaginary kencsses of lower thugs, suited to the meanings which have cen infused from above, by means of which that most pure brilliant ray is in a manner shaded, and both becomes orc bearable to the soul itself and more capable of being immunicate --D