पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२३०

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काव्य में अभिव्यञ्जनवाद । २२३ प्रकार दूल्हा दुलहिन के साथ रमण करता है, इसी प्रकार ईश्वर तुझमें रमण करे। इसी को लेकर स्वर्गीय दूल्हा' ( Heavenly . B11degroo111 ) की भावना चली । जिस प्रकार हमारे यहाँ के हठयोगियो ने मनुष्य के भीतर चक्रो, कमलो, मणिपूर इत्यादि की। कल्पना की है, उसी प्रकार साधक ईसाइयो ने उस स्वर्गीय दूल्हे के साथ विहार करने के लिए अन्तर्देश में कई प्रकार के रंगमहल या कोठरियाँ कायम की थी । ईसा की बारहवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में सन्त बरनार्ड ( St. Bernard ) नाम के जो प्रसिद्ध भक्त हो गए है, उन्होने दूल्हे के तीसरे कक्ष में प्रवेश का इस प्रकार वर्णन किया है“यद्यपि वे ( ईश्वर ) कई बार मेरे भीतर आए पर मैने न जाना कि कब आए । आ जाने पर कभी कभी मुझे उनकी आहट मिली है. उनके विद्यमान होने का स्मरण भी मुझे है, वे आनेवाले हैं इसका आभास भी मुझे कभी कभी पहले से मिला है, पर वे कब भीतर आए और कब बाहर गए, इसका पता मुझे कभी न चला ।' | अब इसी प्रकार की रचना की झलक आप आज इस बीसवी शताब्दी में भी गीताञ्जलि', 'साधना' तथा मासिक पत्रों में समय समय पर निकलनेवाले गद्य-काव्यों में स्पष्ट देख सकते हैं । कबीर की ‘सुन्नि महलिया' भी सामी रहस्यवाद की ओर से आई है। भारतवर्ष के वैष्णव धर्म में भी जैसे सेव्य-सेवक आदि कई भावो से उपासना मानी गई थी वैसे ही गोपियों के कृष्ण-प्रेम को लेकर ‘माधुर्य-भाव' की उपासना भी मानी गई थी , पर उसका स्वरूप केवल भावात्मक था, उसमें न तो भीतर महलों आदि की कल्पना थी, न मूच्छा, उन्माद आदि लक्षण । पीछे मुसल्मानी शासन-काल में कुछ कृष्णभक्तों पर-जैसे, चैतन्य महाप्रभु, मीरा, नागरीदास पर—सूक्तियों का प्रभाव पड़ा। भारतवर्ष के भीतर