पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२३२

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काव्य में अभिव्यञ्जनवाद यही 'अक्षस पूजा-सीधे उसकी पूजा जो प्रत्यक्ष रक्षक और प्रत्यक्ष रञ्जक है---भारतीय भक्ति-भावना का प्रधान स्वरूप है। इसी से इस प्रत्यक्ष वाह्य जगत् के बीच राम-कृष्ण के रूप में अपनी रक्षणरञ्जन-कला का प्रकाश करनेवाले भगवान् के व्यक्त रूप को लेकर भारतीय भक्ति-मार्ग सच्ची भावुकता के साथ चला । यदि किसी पर्वत से, किसी नदी से, किसी वृक्ष से, किसी पशु से-प्रकृति के छोटेबड़े किसी रूप से--लोक का उपकार है तो उसमे स्थित हमारी पूज्य बुद्धि भगवान् ही के प्रति समझनी चाहिए। इस प्रकारे व्यक्त और प्रत्यक्ष रूपो के प्रति पूज्य बुद्धि हमारे भक्ति-मार्ग का वह प्रधान अचयच है जो उसे उन मार्गों से अलग करता है जो ऐसे प्रत्यक्ष रूपो के प्रति पूज्य भाव रखना पाप कहते हैं। सारांश यह है कि हमारे यहाँ का ( सगुण ) भक्ति-काव्य भी ब्रह्म के अज्ञात और अव्यक्त स्वरूप को आध्यात्मिक आभास द्वारा बताने का दावा करता हुआ नहीं चला है। वह इसी व्यक्त जगत् और जीवन के बीच भगवान् की कला का दर्शन कराकर भावमग्न करना | चाहता है । भक्ति-मार्ग के सम्बन्ध में यहाँ इतना निवेदन करने का मेरा अभिप्राय केवल इतना ही है कि सूर, तुलसी आदि भक्त कवियो की रचनाएँ भी रहस्यात्मक स्वप्न, अभास आदि की दृष्टि से न देखी जाये, उनके द्वारा गाए हुए चरित्र भी अन्योक्ति, रूपक आदि न बताए जायें और उनसे तरह-तरह के आध्यात्मिक अर्थ निकालने की बेजा हरकत न की जाय । भक्ति-काव्य भी काव्य ही हैं, और काव्य की तह मे, जैसा कि मैं कहता आ रहा हूँ, इसी जगत् और जीवन की मार्मिक अनुभूतियाँ छिपी रहती हैं। कविता के सम्बन्ध में मेरी धारण बरावर से यही रही है कि वह एक ऐसी साधना है जिसके द्वारा शेष सृष्टि के साथ -मनुष्य के शुद्ध रागात्मक सम्वन्ध की रक्षा और निर्वाह, तथा उसके हृदय का