पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२२८
चिन्तामणि

________________

૨૨= चिन्तामणि प्रसार और परिष्कार होता है। जब तक कोई अपनी पृथक्र सत्ता की भावना को ऊपर किए जगत् के नाना रूपो और व्यापारो को अपने व्यक्तिगत योग-क्षेम, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि से सम्बद्ध करके देखता रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से वद्ध रहता है। इन रूपी और व्यापारी के सामने जब कभी वह अपनी पृथक् सत्ता की धारणा से छूटकर अपने आपको बिल्कुल भूलकर—विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त-हृदय हो जाता है । जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशी कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्या रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, वही कविता है । कविता के साथ आनन्द' शब्द जुड़ा रहने से उसे विलास की एक सामग्री न समझना चाहिए। जो केवल अपने विलास या सुख-भोग की सामग्री ही हुँदा करते हैं उनमे उस रागात्मक ‘स्वत्व' की कमी है जिसके द्वारा व्यक्त सत्ता मात्र के साथ मनुष्य अपने हृदय के सब भावो का केवल प्रेम, हर्प, आश्चर्य आदि का ही नहीं, करुणा, क्रोध, जुगुप्सा आदि का भी ठीक और उपयुक्त सम्बन्ध घटित कर लेता है । इसी से हमारे यहाँ ‘सत्त्वोढ़क' के बिना सची रसानुभूति नहीं मानी गई है ।। । चिर-प्रतिष्ठित काव्य के प्रकृत स्वरूप के सम्बन्ध मे इतना कहकर अब मैं क्रोचे के ‘अभिव्यञ्जनावाद' की उन ६ बातो को लेता हूँ जो इस स्वरूप के विरुद्ध पड़ती हैं और जिनका प्रभाव इधर उधर हमारे वर्तमान साहित्य-क्षेत्र में भी दिखाई पड़ने लगा है। (१) प्रस्तुत के मार्मिक रूप-विधान का त्याग और केवल प्रचुर अप्रस्तुत रूप-विधान में ही प्रतिभा या कल्पना को प्रयोग । उक्त वाद के अनुसार तो काव्य में प्रस्तुत पक्ष कुछ होता ही नहीं । प्रस्तुत पक्ष तो तब होगा जब काव्य की अभिव्यञ्जना को