पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२३४

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काव्य में अभिव्यञ्जनवाद। जगत् या जीवन की बातों से कोई सम्बन्ध होगा। जुव कि किसी प्रकार का सम्बन्ध ही नहीं, जब कि अभिव्यञ्जना अध्यात्म जगत् से उठी हुई वस्तु है, तव कैसा प्रस्तुत ? क्रोचे के अनुसार काव्य-में जीवन की कुछ वस्तुएँ या बातें जो ले ली जाया करती हैं, वे केवल मसाले के रूप में। अब, ये ही वस्तुएँ या बातें साहित्य में प्रस्तुत' कहलाती है । अतः जब इन वस्तुओं या बातो के प्रति किसी प्रकार की अनुभूति उत्पन्न करना काव्य का उद्देश्य ही नहीं तब इनको ऐसे मार्मिक रूप में रखने की आवश्यकता ही क्या जिससे उनके प्रति कोई भाव जगे । प्रस्तुत कहलानेवाली जीवन की वस्तुओं या बातो का तो सहारा मात्र कल्पना की एक नूतन सृष्टि खड़ी करने में लिया जाता है। अतः कवि की प्रतिभा या कल्पना का प्रयोग प्रस्तुत के मार्मिक प्रत्यक्षीकरण में नहीं, उससे अलग विचित्र या रमणीय रूप-विधान में है । प्रस्तुत से अलग रूप-विधान ही अप्रस्तुत या उपमान कहलाता है। उपर्युक्त धारणा अंगरेजी के समीक्षा-क्षेत्र में इतना जोर पकड़ गई है कि ‘रूपविधान' ( Imagery) शब्द का प्रयोग अप्रस्तुत रूप-विधान के लिए ही होता है। श्रीयुत रवीन्द्रनाथ ठाकुर का काव्य के अलङ्कारो पर एक लेख मैंने कहीं देखा था जिसमे रूप-विधान के सम्बन्ध में यही धारण स्पष्ट लक्षित होती थी। अपने रूप और अरूप नामक प्रवन्ध के अन्तर्गत इस कथन में भी इसी का अभास पाया जाता है “मनुष्य की साहित्य-शिल्पकला मे हृदय का भावे रूप में धृत जरूर होता है, पर रूप में बद्ध नहीं होता। इसलिए वह केवल नए नए रूप के प्रवाह की सृष्टि करता है, इसी लिए प्रतिभा को नवनवोन्सेषिणी बुद्धि कहते हैं। इसके आगे उन्होने यह दृष्टान्त दिया है--- मान लिया जाय कि पूर्णिमा की शुभ्र रात्रि का सौन्दर्य देखकर किसी कवि ने वर्णन किया कि मानो सुरलोक के नीलकान्त-मणिमय प्राङ्गण मै सुराङ्गनाएँ नन्दन की नवमल्लिका की फूलशथ्यो ।'