पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२३५

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चिन्तामणि

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२३० चिन्तामणि | यह उद्धरण मैंने केवल यह दिखाने के लिए दिया है कि ठाकुर महोदय भी प्रतिभा या कल्पना का प्रयोग अप्रस्तुत विधान में ही समझते हैं। उनके उपर्युक्त ववन क्रोचे की इस बात को समर्थन नहीं करते है कि काव्य में न कोई प्रस्तुत पक्ष होता है, न उसके प्रति हृदय की कोई अनुभूति । यहाँ उन्होने स्पष्ट रीति से प्रस्तुत वस्तु ‘रात्रि में सौन्दर्य माना है और उसके प्रति हृदय मे प्रिय भाव का उदय कहा है। अतः जो लोग विलायती समीक्षाओं में से इधर उधर के ऐसे वाक्य लेकर कि 'काव्य को विपय क्या ', 'काव्य में अर्थ क्या है? अपनी जानकारी प्रकट किया करते हैं उन्हें ठाकुर महोदय के इस कथन पर ध्यान देना चाहिए । यहाँ मेरा अभिप्राय केवल इस धारणा को असङ्गत सिद्ध करने का है कि काव्य में प्रतिभा या कल्पना का काम केवल ढूंढ-ढूंढ़ कर, या अपनी अन्तरात्मा मे से निकाल निकाल कर, तरह तरह के अग्रस्तुत रूपों का विधान करना ही है। यह तो हमारे यहाँ का वही पुराना ‘अलङ्कारवाद' ही हुआ जो थोड़ा रूप बदलकर और अलङ्कार शब्द को हटाकर प्रकट हुआ है। क्या रूप बदला है, यह मैं अलङ्कार के प्रसङ्ग में सूचित करूंगा। जो अप्रस्तुत रूप-विधान या उपमानों की योजना में ही प्रतिभा या कल्पना का प्रयोग और काव्यत्व मानेगे उनके निकट वाल्मीकि का हेमन्तवर्णन,कालिदास का मेघदूत,व सर्वथ ( Wordsworth ) के सीधे-सादे रूप में चित्रित विना तड़क-भड़कवाले सामान्य ग्रामीण दृश्य काव्य ही न ठहरेगे । मेघदूत न कल्पना की कोरी उड़ान है, न कला की विचित्रता । वह है प्राचीन भारत के सवसे भावुक हृदय की अपनी प्यारी भूमि की रूप-माधुरी पर सीधीसादी प्रेमदृष्टि । क्या ‘त्वय्यायत्तं कृषिफलमिति भूविकारानभिज्ञैः, त्वामारूढ पवनपदवीम्, 'विश्रान्तस्सन् जे नगनदीतीर-जातानि सिञ्चन्’ इत्यादि प्रस्तुत रूप-विधान काव्य नहीं है जिन्हें इनमें काव्य न दिखाई