पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२३६

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काव्य में अभिव्यञ्जनाचा ३३१ पड़े उनके सम्बन्ध में समझना चाहिए कि वे बारातों में निकलनेवाली कागज की फुलवारी को काव्य समझे बैठे हैं। वे केवल तमाशबीन है। प्रस्तुत पक्ष का रूप-विधान भी कवि की प्रतिभा द्वाराही होता है । भाव की प्रेरणा से नाना रूप-संस्कार जग पड़ते हैं जिनका अपनी प्रतिभा या कल्पना द्वारा समन्वय करके कवि प्रस्तुत वस्तुओ या तथ्यों का एक मार्मिक दृश्य खड़ा करता है। काव्य में प्रतिभा या कल्पना का मैं यह पहला काम समझती हूँ। जो नाना प्रकार के अप्रस्तुत उपमान जोड़ने में ही काव्ये समझेंगे उनका हृदय पर प्रकृति की नाना वस्तुओं और व्यापारो का कोई मार्मिक प्रभाव न रह जायगा । वे मार्मिक से मार्मिक प्रत्यक्ष दृश्य के सामने वार्निश किए हुए काठ के कुंदे या गढ़ी हुई पत्थर की मूर्ति के समान खड़े रह जायेंगे। ऐसे लोगो के द्वारा काव्य का विभाव-पक्ष ही ध्वस्त हो जायगा ।। अप्रस्तुत योजना पर ही अधिक ध्यान देने की प्रवृत्ति आज-कल की नई रंगत की कविताओं में भी दिखाई पड़ रही है। पं० सुमित्रानन्दन पन्त ऐसे कवियों पर भी, जो जगत् और जीवन की मार्मिक अनुभूतियों से सम्पन्न हैं, 'अभिव्यञ्जनवाद' से निकली हुई इस - प्रवृत्ति को प्रभाव कहीं कहीं अधिक मात्रा में दिखाई पड़ जाता है, जैसे, उनकी 'छाया' नाम की कविता में ।। (२) जीवन के किसी मार्मिक पक्ष को लेकर सच्ची भावानुभूति में लीन करने का प्रयास छोड़, केवल अभिव्यञ्जना या उक्ति में बैलक्षण्य लाने का प्रयास । ' | क्रोचे का अभिव्यञ्जनवाद' सच पूछिए तो एक प्रकार का ‘वक्रोक्तिवाद' है । संस्कृत-साहित्य के क्षेत्र में भी कुन्तक नाम के एक आचार्य “वक्रोक्तिः काव्य-जीवितम्' कहकर उठे थे। उनकी दृष्टि में भी ‘उक्ति की वक्रता' ही काव्य है । वक्रता काव्य में अपेक्षित अवश्य होती हैं, पर वहीं तक जहाँ तक उससे हृदय की किसी अनुभूति से