पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२४

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| काव्य में प्राकृतिक दृश्य । वाष्पसंछनसलिला रुतविज्ञेयसारसाः । ।' '. | हिमाद्वालुकैस्तीरे.सरिता भान्ति साम्प्रतम् ।। जराजर्जरितैः प. शीर्णकेसरकर्णिकैः ।। नालशेषैर्हिमध्वस्तैर्न भान्ति कमलाकराः ।। -( अरण्य, १६ सर्ग ) महाकवि कालिदास ने भी जहॉ स्थल-वर्णन को सामने रखकर दृश्य अङ्कित किया है वहाँ उनका निरीक्षण अत्यन्त सूक्ष्म है--- अमेखले सञ्चरता घनाना छायामधः सानुगत निषेव्य । उद्वेजिता वृष्टिभिराश्रयन्ते शृङ्गाणि यस्यातपवन्ति सिद्धा ।। कपोलकण्डू: करिभिर्विनेतु विघट्टिताना सरलद्माणाम् । यत्र स्वतचीरतया प्रसूतः सानूनि गन्ध सुरभीकरोति ।। . भागीरथीनिर्भरशीकराया वोढा मुहु कम्पितदेवदारुः । यद्वायुरन्विष्टगै. किरातैरासेव्यते भिनशिखण्डिबर्हः ॥ * वन की भूमि, जिसकी हरी-हरी घास पाला गिरने से कुछ कुछ गीली हो गई है, नई धूप पड़ने से कैसी शोभा दे रही है । अत्यन्त प्यासा जङ्गली हाथी बहुत शीतल जल के स्पर्श से अपनी मुँह सिकोड़ता है। बिना फुल के वन-समूह कुहरे के अन्धकार में सोए से जान पड़ते हैं। नदियाँ, जिनका जल कुहरे से ढका हुआ है और जिनमें के सारस पक्षी केवल शब्द से जाने जाते हैं, हिम से आई बालू के तर्को से ही पहचानी जाती हैं। कमल, जिनके पत्ते, जीर्ण होकर झड़ गए हैं, जिनकी केसर और कर्णिका टूट-फूटकर छितर गई हैं, पाले से ध्वस्त होकर नाल-मान्न खड़े हैं।

  • मेखला तक घूमनेवाले मेघों के नीचे के शिखरों में प्राप्त छाया को सेवन करके दृष्टि से कैंपे हुए सिद्ध लोग जिसके धूपवाले शिखरों का सेवन करते हैं । जिस ( हिमालय ) में कपोलों की खुजली मिटाने के लिए हाथियों के द्वारा रगड़े गए सरल ( सलई ) के पेड़ से टपके हुए दूध से उत्पन्न सुगन्ध शिखरों को सुगन्धित करती है। गङ्गा के झरने के कणों को ले जानेवाला, बारबार देवदारु के पे को कैंपानेवाला, मयूरों की पूँछों को छितरानेवाला जिसका पवन मृगों के ढूंढ़नेवाले किरातों द्वारा सेवन किया जाता है।