पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२४०

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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद २३५. घटनाचक्र, वस्तुवर्णन, संवाद और भावव्यञ्जना के-ठीक ठीक परिमणि की व्यवस्था वे न रख सके । संवाद और भाव-व्यञ्जना, इन्ही दो अवयवो की प्रधानता, हो गई। दो सर्ग तो उर्मिला के वियोग की नाना दशाओ की व्यञ्जना में ही लग गए। कथा-प्रवाह या सम्बन्धनिर्वाह बहुत कम पाया जाता है । कथा-प्रवाह या सम्बन्ध-निर्वाह प्रबन्ध-काव्य की पहली वस्तु है, जैसा कि माघ कवि ने कहा है बहपि स्वेच्छयो काम प्रकीर्णमभिधीयते ।। अनुज्झितार्थसम्बन्धः प्रबन्धो दुरुदाहरः ॥ पर डा० केर ने महाकाव्य रचने की असफलता का कारण जो उपन्यासों को प्रचार बताया है, वह ठीक तो है, पर अकेला नही । इस असफलता का मुख्य कारण है ‘कलावाद’, ‘अभिव्यञ्जनावाद आदि के प्रभाव से प्रगीत मुक्तकों की ओर ही कवियो का टूटा पड़ना । हिन्दी-साहित्य के इतिहास में भी प्रबन्ध-काव्यों की रचना भक्तिकाल के भीतर ही विशद् रूप में मिलती है । रीतिकाल प्रकीर्णको या मुक्तको का काल था ! तब से वरावर हिन्दी में भी फुटकल रचनाओ के अभ्यासी कवि चले आए, इससे अच्छे प्रवन्ध-काव्य न बन सके। पहले रीतिकाल की फुटकल रचनाओं के अभ्यास से प्रबन्धकाव्य का मार्ग रुका रहा, अब आजकल प्रगीत मुक्तकों (Lyrics ) की योरपीय प्रवृत्ति के अनुकरण से उसके मार्ग में बाधा पड़ रही है। उपन्यासों के प्रचार को मैं वैसा बाधक नहीं समझता ।। ( ४ ) असीम, अनन्त ऐसे शब्दो द्वारा रचनाओं पर आध्यात्मिक रंग चढ़ाने की प्रवृत्ति ।। | जो रचनाएँ वस्तुतः रहस्यवाद को लेकर चले उनमें तो आध्यात्मिक पुट आवश्यक ही है। उनको एक साम्प्रदायिक परम्परा के अन्तर्गत मानकर अलग ही छोड़ देना चाहिए। पर नए ढंग की