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चिन्तामणि

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२३६ चिन्तामणि जितनी कविताएँ वनें सबके भीतर कहीं न कहीं असीम, अनन्त को सम्पुटित करने की मैं कोई जरूरत नहीं समझता । मै कई बार कह चुका हूँ कि आज-कल जितनी कविताएँ ‘छायावाद' की कही जाती है उनमें से अधिकांश को 'रहस्यवाद' से कोई सम्बन्ध ही नहीं । ‘छायावाद' शब्द किस प्रकार रहस्यवाद-सूचक है, यह मैं दिखा आया हैं । अतः नई रंगत की कविता के लिए मै यह शब्द ठीक नहीं समझना ! श्रीयुत पं० सुमित्रानन्दन पन्त की प्रायः सत्र कविताएँ जगत् और जीवन के किसी न किसी मार्मिक पक्ष से सम्बन्ध रखती हैं । श्री जयशंकर प्रसादजी की वाणी भी या तो वेदना की विवृति में अथवा सुख-सौन्दर्य और रमणीयता की अनुभूति उत्पन्न करने में लीन देखी जाती है। इधर उधर स्वन्त, छाया, मद-मदिर' आदि रहस्यवाद के कुछ झट्ट शब्द्ध और कहीं कहीं अनन्त-असीम की ओर सतो के रहने से ही कविता रहस्यवाद की नहीं हो जाती । नई पद्धति की कविताओं की सामान्य आकर्पक विशेषता ब्यञ्जना की प्रणाली में हैं । यह प्रणाली हमारे कुछ नवीन कुशल कवियों के हाथ में स्वतन्त्र विकास कर रही है । अतः अब उस पर से ‘छायावाद के नाम की विलायत-बॅगला मुहर हट जानी चाहिए। रवीन्द्र वाचू यदि अनन्त की ओर ताका करें तो यह आवश्यकता नहीं कि सत्रकी टकटकी उसी ओर लगे । उनको तो मैं एक बड़ा भारी आलङ्कारिक मानता हैं। किसी बात को जितने अधिक विलक्षण और व्यञ्चक शब्दो में वे लपेट सकते है, दूसरा नहीं । उनके लाए हुए अप्रस्तुत रुप अद्भुत दीप्ति के साथ अर्थ और भाव का प्रकाश करते ।। इतना होने पर भी उनकी जिन रचनाओं में ‘आध्यात्मिक अदा विशेष रहती है उनकी तह में अनुभूति की कोई नवीन भूमि नहीं मिलती । वही रूप की क्षणभङ्गुरता, ससीम की असीम के साथ मिलने आदि दिखाई पड़ता है। पर जो कविताएँ जगत् या जीवन की