पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२४२

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काव्य में अभिव्यञ्जनवाद २३७ किसी मार्मिक वस्तु या तथ्य को लेकर अथवा लोकवाद के साथ समन्वित होकर चली हैं वे अत्यन्त हृदयग्राहिणी हैं। उदाहरण के लिए 'ताजमहल' को लक्ष्य करके लिखी हुई कविता लीजिए, जिसमें कवि शाहजहाँ को इस प्रकार सम्बोधित करके--- | है सम्राट् कवि, एइ तव हृदयेर छवि, एइ तव नव मेघदूत, अपूर्व अद्भुत ।। कहता है--“हीरा, मोती और मणियो की घटा, शून्य दिगन्त के इन्द्रजाल इन्द्रधनुष की छटा की भॉति, यदि लुप्त हो जाती है तो हो जाय, केवल एक बूंद ऑखो का ऑसू---यह शुभ्र, समुज्ज्वल ताजमहल--- काल के कपोल-प्रान्त पर बची रहे ।” । कहने का तात्पर्य यह कि वर्तमान काव्य और समीक्षा दोनो के क्षेत्र में अध्यात्मिक' शब्द भी बहुत से निरर्थक वाग्जाल का कारण हो रहा है । इसके कारण अनुभूति की सचाई ( Sincerity ) की भी कम परवा की जा रही है। ( ५ ) 'कला' शब्द के कारण काव्य के स्वरूप के सम्बन्ध में शिल्पवाली, वेल-बूटे और नक्काशीवाली, हलकी धारणा । इसके सम्बन्ध मे पहले वहुत कुछ कहा जा चुका है । यह देख कर खेद होता है कि इस हलकी धारणा का प्रचार वढ़ता जाता है । कारण यह है कि बड़े लोगों की ओर से भी बीच-बीच में इसे सहारा मिलता, जाता है। श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर पर भी इस धारणा का पूरा प्रभाव जान पड़ता है । वे भी कभी तो शिल्प के अन्तर्गत काव्य को भी ले लेते हैं और कभी शिल्प-साहित्य एक सॉस में कह जाते हैं । मैं फिर भी जोर के साथ कहता हूँ कि यदि काव्य के प्रकृत स्वरूप की । रक्षा इष्ट है तो उसका पीछा इस 'कला' शब्द से जहॉ तक शीघ्र छुड़ाया जाय अच्छा ।।