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चिन्तामणि

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२३८ चिन्तामणि ( अपने भाप के प्रारम्भ ही में मैंने अपनी अयोग्यता प्रमाणित करने का वचन दिया था। कम से कम मैंने इतना तो अवश्य सिद्ध कर दिया कि मेर। इस परिपद् का सभासद चुना जाना 'कला की दृष्टि से अनुपयुक्त हुआ । ) आजकल की नई रचनाओं में कुछ दूर तक चलनेवाली संश्लिष्ट रूप-योजना तथा भावनाओं की अन्विति ( Unity ) का जो अभाव पाया जाता है उसकी जवाबदेही भी मैं 'कलावाद' ही के सिर मढ़ना चाहता हूँ । (६) समालोचना का हवाई होना और विचारशीलता का ह्रास । इसके सम्बन्ध में भी पीछे बहुत कुछ कहा जा चुका है। यहाँ इतना ही कहना है कि विचारशीलता के हास से पुष्ट और समर्थ साहित्य का विकास रुक जायगा । भारतवर्ष का सम्पर्क संसार के और भागो से बढ़ रहा है । यदि हम में विवेक-बल रहेगा तो हम चारो ओर से उपयोगी और पोषक सामग्री लेकर और पचाकर अपने साहित्य को पुष्ट और दृढ़ करेंगे। यदि यह विवेक-बल न रहेगा तो जैसे अनेक प्रकार के विदेशी रोगों ने आकर यहाँ अङ्क जमा लिया है, वैसे ही अनेक प्रकार की व्याधियाँ आकर हमारे साहित्य को ग्रस लेगी और उसका स्वतन्त्र विकास रुक जायगा ।। यहाँ तक तो ‘कलावाद' और 'अभिव्यञ्जनावाद' के भले-बुरे प्रभाव का वर्णन हुआ । अब मैं अपने यहाँ की साहित्य-मीमांसापद्धति के सम्बन्ध में दो-चार वाते निवेदन कर देना चाहता हूँ । शब्दशक्ति के प्रसङ्ग मे मै कह आया हूँ कि इस पद्धति पर चलकर हम सारे संसार के नए-पुराने काव्य की बहुत ही स्पष्ट और स्वच्छ समीक्षा कर सकते है। मैं अब अधिक समय न लेकर रस, रीति और अलङ्कार के सम्बन्ध में कुछ अपने विचार प्रकट करूंगा ।। पहले 'रस' लीजिए। इसका निरूपण बहुत ही व्यवस्थित रूप में हुआ है। स्थायी-सञ्चारी का भेद बहुत ही मार्मिक और सूक्ष्म दृष्टि से