पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२४४

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| २३६ काव्य में अभिव्यञ्जनावाद वैज्ञानिक आधार पर हुआ है। क्यो कुछ भाव स्थायी कहे गए और कुछ सञ्चारी ? अच्छी तरह विचार करने पर भेद को आधार मिल जाता है । स्थायी वे ही भाव माने गए हैं जो संक्रामक हैं, जिनकी व्यञ्जना श्रोता या पाठक में भी उन्हीं भावो की सच्चार कर सकती है। मनोविज्ञान मे भावो की प्रधानता और स्थायित्व का जो विचार किया गया है वह दूसरी दृष्टि से । भावों के वर्गीकरण आदि की हमारे यहाँ बहुत अच्छी व्यवस्था हुई है । पर इसका मतलब यह नहीं . कि उत्तरोत्तर बढ़ती हुई विचार-परम्परा द्वारा उसकी और उन्नति, परिष्कृति और संशोधन न हो । स्थायित्व की ही बात लीजिए । अच्छी तरह ध्यान देने पर यह पता चलेगा कि भाव की तीन दशाएँ होती हैंक्षणिक दशा, स्थायी दशा और शील-दशा । किसी भाव की क्षणिक दशा एक अवसर पर एक अलम्बन के प्रति होती है, स्थायी दशा अनेक अवसरों पर एक ही आलम्बन के प्रति होती है और शील-इशा अनेक अवसरो पर अनेक आलम्बनो के प्रति होती है । क्षणिक दशा मुक्तक रचनाओ मे देखी जाती है ; स्थायी दशा महा• काव्य, खंड-काव्य आदि प्रबन्धो मे और शल-दशा पात्रो के चरित्रचित्रण में । इतना मैने केवल उदाहरण के लिए कहा है। साहित्यक्षेत्र की इन सब बातो को विचार मैंने एक अलग ग्रन्थ में किया है। जो समय पर प्रकाशित होगा । इसके अन्तर्गत हमारे यहाँ बड़े महत्त्व का सिद्धान्त ‘साधारणीकरण' का है। ‘साधारणीकरण' का सीधे शब्दो में अर्थ है श्रौता का भी उसी भाव में मग्न होना जिस भाव की कोई काव्यगत पात्र ( या कवि) व्यञ्जना कर रहा है। यह दशा तो रस की ‘उत्तम दशा' है। पर रस की एक मध्यम दशा' भी होती है जिसमे पात्र द्वारा व्यक्षित भाव मे ओता का हृदय योग न देकर उस पात्र के ही प्रति किसी भाव का अनुभव करने लगता है। जैसे कोई क्रोधी या क्रूर प्रकृति