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चिन्तामणि

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२४० चिन्तामणि का पात्र यदि किसी निरपराध, दीन और अनाथ पर क्रोध की प्रबल व्यञ्जना कर रहा है तो श्रोता या पाठक के मन में क्रोध का रसात्मक सञ्चार न होगा, बल्कि क्रोध प्रदर्शित करनेवाले उस पात्र के प्रति अद्भा, घृणा आदि का भाव जग सकता है। यह भी एक प्रकार की रसात्मक अनुभूति ही हैं, पर मध्यम कोटि की । अतः प्रकृति के वैचित्र्य-प्रदर्शन की दृष्टि से लिखे हुए पाश्चात्य नाटको से इसी प्रकार की अनुभूति होती है। पर हमारे यहाँ के पुराने नाटकों में रस की प्रधानता रहने से ‘साधारणीकरण' अधिक अपेक्षित होता है। 'चमत्कारवादियो' के कुतूहल को भी काव्यानुभूति के अन्तर्गत ले लेने पर रसानुभूति की क्रमशः उत्तम, मध्यम और निकृष्ट तीन दशाएँ हो जाती हैं। अब अलङ्कार लीजिए। अलङ्कारो में अधिकतर सायमूलक अलङ्कार ही अधिक चलते हैं । अतः इस साम्य के सम्बन्ध में थोड़ा विवेचन कर लेना चाहिए। हमारे यहाँ साम्य मुख्यतः तीन प्रकार के माने गए हैं-सादृश्य ( रूप की समानता ), साधर्म्य ( धर्म अर्थात् गुण-क्रिया आदि की समानता ) तथा शब्द-साम्य ( केवल शब्द या नाम के आधार पर समानता )। इनमे से तीसरे को लेकर तमाशे खड़े करना तो केवल केशव ऐसे चमत्कारवादी कवियों का काम है। प्रथम दो के सम्बन्ध में ही कुछ निवेदन करने की आवश्यकता है । सादृश्य के सम्बन्ध में पहली बात ध्यान में रखने की यह है कि काव्य में उसकी योजना बोध या जानकारी कराने के लिए नहीं की जाती है, बल्कि सौन्दर्य, माधुर्य, भीषणता इत्यादि की भावना जगाने के लिए की जाती है। जैसे, किसी क्रुद्ध व्यक्ति की ऑखो के सम्बन्ध में यही कहा जायगा कि वे अंगारे सी लाल हैं यह नहीं कहा जायेगा कि ‘कमल के समान लाल हैं ।