पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२४७

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चिन्तामणि

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२४२ चिन्तामणि •inार चमकता इनका मेरी कर भिलने से । ( विरह व्यथा का चोभ = दुमदत का हिलना ) अभिप्राय यह है कि प्रेमी जितना ही विकल होता है प्रेम-पात्र अपने सौन्दर्य का प्रभाव देख उतना ही प्रसन्न होता है। प्रेमी रोकर जितना ही ऑसू गिराता है उतना ही मानो प्रेम-पात्र को सौन्दर्य धुलकर निखरता आता है अर्थात् लोगो की दृष्टि में उसकी सुन्दरता और भी अधिक दिखाई पड़ती जाती है। ( २) जल उठा स्नेह-दीपक सा । नवनीत हृदय था मै । अत्र शेप धूमरेस से चित्रित कर रहा अँधेरा ।। ( धूमरेखा = बातों की धुंधली स्मृति । अँधेरा = हृदय का अन्धकार या शून्यता । } अभिप्राय यह है कि प्रिय के न रहने पर हृदय अन्धकारमय या शून्य हो गया, उसके बीच केवल धुंधली पुरानी स्मृतियाँ इस प्रकार उठ-उठकर घूम रही है जिस प्रकार दीपक बुझने पर धुएँ की रेखा अँधेरे में उठ-उठकर अनेक वल खातीं घूमती है: ।। प्रभाव और रमणीयता पर दृष्टि रखकर कुछ हमारे पुराने कवियो ने भी अत्यन्त मार्मिक और सुन्दर अप्रस्तुत-योजना की है, जैसे सूरदासजी ने इस पद में--- ज्यों चकई प्रतिविम्ब देखि कै अनिन्दी पिय जानि ।। सूर पवन मिस निठुर विधाता चपल कियो जल अनि ॥ थोड़े से हेर-फेर के साथ यही भावना पन्तजी की इन पंक्तियों में है-- मिले थे दो मानस अज्ञात, स्नेह-शशि विम्बित था भरपूर ।। अनिल सा कर अकरुण अघात, प्रेम-प्रतिमा कर दी वह चूर ।।