पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२४८

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काव्य में अभिव्यञ्जनवाद २४३ काव्य के वर्तमान समीक्षको की दृष्टि में दबी हुई या प्रच्छन्न अप्रस्तुत-योजना, जिसे हमारे यहाँ व्यंग्य रूपक कहेगे, बहुत उत्कृष्ट मानी जाती है; जैसी कि जायसी की इस उक्ति में है-- हीरा लेइ सो बिद्म धारा । बिहँसत जगत भएड उजियारा ।। यह पद्मिनी के ओठों और दॉतो का वर्णन है, जिसमें अप्रस्तुत प्रभात - का रूप बिल्कुल छिपा हुआ है। पद्मिनी के हँसने पर दॉतो की उज्ज्वल आभा अधरों की अरुण आभा लेकर जब फैलती है तब सारा संसार प्रकाशित या प्रफुल्ल हो जाती है-उसी प्रकार जैसे प्रभात काल की श्वेत अरुण आभा फैलने से भूमण्डल प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार वर्षा को व्यंग्य रूपक रूप पंतजी के इस पद्य में है--- जव निरस्त्र त्रिभुवन का औवन । गिरकर प्रवल तृषा के भार, रौमावलि की शरशय्या में । तड़प तड़प करतः चीत्कार, हते हो तब तुम जग का दुख । वहीं प्रेम-सुरसरि की धार । अप्रस्तुत-विधान के नए ढंग का अच्छा निरूपण आज-कल के दो प्रतिनिधि कवियो की इन पंक्तियो से हो जाता है- (क) सुरीले ढीले अधरों बीच अधूरा उसको लचका गान , विकच बचपन को, मन को खींच उचित बन जाता था अपमान । —पन्त ( इसमें कहा गया है कि उस बालिका का गान ही बाल्यावस्था और उसके भोले मन को उपमान बन जाता था अर्थात्, वह गान स्वतः शैशव और उसकी उमङ्ग ही था । इसमें उपमान और उपमेय के बीच व्यंग्य-व्यञ्जक भाव का ही सम्बन्ध है, रूप-साम्य कुछ भी नहीं । )