पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२४४
चिन्तामणि

________________

२४४ चिन्तामणि ( १ ) कामना फल की विकसी कमनीय मृत्ति हो तेरी ; चिती असे हृदय-पटल पर अभिलाषा वनकर मेरी । ---प्रसाद ( कला सौन्दर्य का विधान करती है। स्वयं कला के मन में जो सौन्दर्य की भावना है वहीं मानो तेरे रूप में मूर्त होकर व्यक्त हुई हैं ; श्रीर इधर मेरे मन में उस रूपदर्शन का अभिलाप-प रमणीय भाव बनी है। इस प्रकार ‘आश्रय' श्रीर ‘लम्बन दोनों का विधान हो गया है। इसमें भी वही व्यंग्य-व्याक भाव का सम्बन्ध है।) ये दोनो उक्तियाँ इस बात का पूरा सङ्केत करती हैं कि किस प्रकार अप्रस्तुत-विधान में व्यञ्जकता पर ही मुख्य दृष्टि रखी जाती है। नए ढंग की कविता की सबसे बड़ी विशेषता है लाक्षणिकता । कुछ वस्तुओं का प्रतीकवत् (Symbols ) ग्रहण भी इसी के अन्तर्गत आ जाता है । लक्षणा का पेट बहुत गहरा है। नए ढंग की कविताओं के भीतर यहाँ से वहाँ तक लक्षणाएँ भरी मिलेगी---उपादान-लक्षणी भी लक्षण-लक्षणा भी, जैसे ( १ ) मर्म-पीड़ा के हासे । ( हासे = पूर्ण विकसित या प्रवृद्ध रूप । पीड़ा और हास के विरोध के कारण विरोधाभास' को भी चमत्कार है।) (२) चाँदनी का स्वभाव में भसि ।। विचारों में बच्चों की सोस । ( चौदनी = स्वच्छता,शीतलता और मृदुलती। बच्चों की साँस = भोलापन)। ( ३ ) स्नेह की वासन्ती संसार, पुनः उच्छ्वासों को अाकाश । ( वासन्ती संसार = संयोग की सुख-दशा । आकाश = शून्य जीवन । वसन्त के पीछे ताप और बगोले से भरे ग्रीष्म का अप्रस्तुत रूप भी छिपा हुआ है।) व्यञ्जना की इन पद्धतियों में कही कहीं अंगरेजी भाषा की शैली ज्यो की त्यों मिलती है, जैसे- बच्चों के तुतले भय सी’ ( तुतले= तुतली बोली में व्यञ्जित ) । इस प्रकार का अनुकरण मैं अच्छा नहीं