पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२५४

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काव्य में अभिव्यञ्जनवाद - साहित्य-विभाग के अध्यापको के लिखे निवन्धक सनर के संग्रह में हैं ।* आजकल कहीं कहीं समीक्षाओ के भीतर जो यह लिखा देखने को मिलता है कि “यह तो बुद्धिवाद है, यह तो बुद्धित्व है वह किस दिशा से उड़कर आया हुआ वाक्य है, इसका कुछ पता उपर्युक्त विवरण से लग सकता है। पश्चिम में काव्य की भावना में बुद्धि क्यों इतनी बाधक दिखाई दे रही है, उसका कारण प्रत्यक्ष है । उसका कारण है काव्य के सम्बन्ध में यह संकुचित और बालोचित धारणा कि उसकी अनुभूति ‘विस्मय’ और ‘कुतूहल' के रूप में होती है। ‘विस्मय’ और ‘कुतूहल’ बालको और जंगली जातियो का लक्षण अवश्य है । पर बहुत निम्न कोटि की काव्यानुभूति ‘कुतूहल और ‘विस्मय' के रूप में होती है, यह मैं अच्छी तरह दिखा चुका हूँ। ( अव वर्तमान योरपीय काव्य-क्षेत्र की दो-चार और प्रवृत्तियों का उल्लेख करके मैं अपने भाषण को समाप्त करना चाहता हूँ । ) । इधर हाल में इंगलैंड के काव्य-क्षेत्र में गत महायुद्ध के दो चार वर्ष पहले से “प्रकृति की और फिर लौटने के लक्षण कवियों ने दिखाए । रूपर्ट ब्रुक ( Rupert Brooke ) जिनका उल्लेख पीछे हो चुका है, इसी पक्ष के अनुयायी थे। वे बड़ी ही सच्ची भावना के कवि थे । प्रवृत्ति के चिरपरिचित सादे और सामान्य माधुर्य ने उनके मन में घर कर लिया था । रूपो की चमक-दमक, तड़क-भड़क, भव्यता, विशालता की ओर जिस प्रकार उनका मन नहीं लगता था उसी प्रकार वचन-वक्रता, भाषा की उछल-कूद, कल्पना की उड़ान की ओर उनकी प्रवृत्ति नहीं थी । हेरल्ड मुनरो ( Harold Monro ) आदि कई एक इस पक्ष के अनुयायी कयि अभी वर्तमान हैं ।।

  1. Essays in Criticism ( by members of the Department of English, University of California 1929 ).