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चिन्तामणि

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२५० चिन्तामणि जीवन की सामान्य और घरेलू वस्तुओं को ये लोग बड़े प्यार की दृष्टि से देखते हैं। एक दूसरे सिद्धान्त के प्रवर्तक पिलट ( F. S. Flint ) हैं। 'जिनकी “तारक-जाल में नाम की पुस्तक सन् १९०६ में प्रकाशित हुई थी । उनका सिद्धान्त है कि कविता में जो बात कही जाय वह सब इस रूप में हो कि उसकी मूर्त भावना हो सके । इसी लिए इस सिद्धान्त को लोग ‘मृतंविधानवाद' ( Iinagi5001 ) कहने लगे । इसके अनुयायी काव्य में भाव-वाचक शब्द रखने के विरोधी हैं । विचारात्मक तथा लंबी कविताएं भी ये लोग अच्छी नहीं समझते ।। पहले एक प्रकार के रीतिवाद' का उल्लेख हो चुका है जो फ्रांससे संवेदनावाद' ( Inipressionism ) के नाम से चला है । उसके अनुयायी कचिता को संगीत के और निकट लाना चाहते है । ये लोग शब्दो के प्रयोग में उनके अर्थों पर ध्यान देना उतना आवश्यक नहीं समझते जितना उनकी नाद-शक्ति पर । जैसे, यदि मधुमक्खियों के धावे का वर्णन होगा तो 'भिन भिन’ 'मिन मिन’ ऐसी ध्वनिवाले ; हवा के बहने और पत्तो के बीच घुसने का वर्णन होगा तो ‘सर सर’, ‘भर्मर' ऐसी ध्वनिवाले शब्द इकडे किए जायेंगे । तुलसीदासजी की चौपाई का यह चरण इसका उदाहरण होगा--- कंकन, झिकिनि नूपुर धुनि सुनि । इसमें 'भनकार' की संवेदना का अनुभव सुनने मात्र से हो जाता है। वीररस की कविताओं में पाए जानेवाले 'चटाक-पटक 'कड़कधड़क' आदि शब्दों तथा अमृतध्वनि छन्द से तो हिन्दी-पाठक भी पूरे परिचित होगे । सूदन कवि की ये पंक्तियों ही देखिए धड्धद्धरं धड्धद्धर भड्भःभरं भड्भउभरे ।। ततत्तरे तहततरं, कड़कक्कर कड़ककर ॥ संवेदनावाद' और 'मुर्राविधानवाद' दोनो को मिलाकर सब