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चिन्तामणि

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- चिन्तामणि ऊँची उठी तरंग की श्वेत फेनिल चोटी पर पड़कर पीली मधुमक्खियों के फेल हुए फुड सी लगती हैं। वह ऊपर उठी लहर देवमन्दिर के मण्डप सी जान पड़ती है, जिसके भीतर पाठ होता है, बड़े बड़े घंटे बजते हैं, गेरू से पुते दरवाजे होते है, नगाड़े बजते हैं, बड़ी तोदवाले मोटे निठल्ले पुजारी वैठे रहते है। हवा समुद्र के जल को वैसे ही खींचती जान पड़ती है जैसे मछुवा जाल खीचता हो । सूर्यास्त हो। जाता है । धुंधलापन, फिर अन्धकार हो जाता है ; लोग सोते हैं। | अब किसे ढंग से इन सब बातो की संवेदना उत्पन्न करने के लिए पदविन्यास किया गया है, थोड़ा यह देखिए। ‘स' से सनसनाहट अर्थात् हवा चलने की और 'देश' से चमड़ी फटने, पानी की ठंडक और मधुमक्खी के डंक मारने की संवेदना उत्पन्न की गई है । ‘स्वर्ण से सूर्य की किरनो और मधु-मक्खियों के पीले रंग का आभास दिया गया है । ‘गुन' से गुनगुनाहट और गुञ्जार का सङ्केत किया गया है, जो ‘दंश' के साथ मिलकर मधुमक्खियों की भावना उत्पन्न करता है। 'जाल' झुड का द्योतक है । “पाट’, ‘घंटे' और 'नगाड़े को मिलाकर, मन्दिरों में होनेवाले शब्द तथा समुद्र के गर्जन और छीटों के कलकल का आभास दिया गया है। लटके हुए 'वंदे की मून्तै भावना में लहरों के नीचे-ऊपर झलने का भी सङ्केत हैं। गेरू में सन्ध्या की ललाई झलकाई गई है । 'नगाड़े में निकली हुई तोद का का भी सङ्केत है। रचना के प्रथम खण्ड में 'सूर्य' और 'समुद्र शब्द नही रखे गए हैं। स्वर्ण’ में तपे सोने के ताप और दमक की भावना रखकर सूर्य का, और रजत' में शीतलता और स्वच्छता की भावना रखकर जलराशि वा समुद्र का सङ्केत फिर कर दिया गया है ( बड़ी कृपा ! ) । इसमें 'स' के अनुप्रास से भी सहायता ली गई है। यह अनुप्रास पहले खण्ड में ‘स' अक्षर से आरम्भ होनेवाले ‘सूर्य’ और ‘समुद्र-इन दो शब्दों की ओर भी इशारा करता है।