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चिन्तामणि

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चिन्तामणि काव्य और समालोचना के विवेचन में, मैं समझता हूँ, मैंने बहुत अधिक समय ले लिया-इतना अधिक कि अय साहित्य के और अंगों के सम्बन्ध में केवल दो दो बाते ही कही जा सकती हैं । ) नाटक--- | साहित्य का एक बड़ा आवश्यक अङ्ग दृश्य-काव्य' है जिसके अनेक भेद हुमारे यहाँ किए गए हैं । रचना की प्रक्रिया का भी बड़ा प्रकाण्ड, कोशलपूर्ण और जटिल निरूपण है। हमारे साहित्य में रूपक या नाटक भी काव्य ही है, अतः रस ही पर दृष्टि उनमें भी रखी गई है । पाश्चात्य नाटको मे अन्तःप्रकृति के वैचित्र्य-प्रदर्शन पर विशेष दृष्टि रखी जाती है । हिन्दी में नाटकी का जिस रूप में विकास हुआ, उसमे दोनों दृष्टियों का मेल है। यह बात बहुत अच्छी हुई है। भारतेन्दु-काल में जिन नाटको की रचना हुई उनमें अन्तःप्रकृति के वैचित्र्य का विधान नहीं के बराबर हैं । पर इधर जो नाटक लिखे जा रहे हैं उनमें यह विधान भी आ रहा है । पाश्चात्य नाटकों की प्रवृत्ति इधर एकदम “वास्तविकता की ओर हो रही है। नाटक से काव्यत्व और भावात्मकता दूर करने का प्रयास हो रहा है । पुराने साम्यवादी होने के कारण वर्नार्ड शा ने मनुष्यसमाज की व्यवस्था सम्बन्धी प्रश्नों को लेकर वर्तमान परिस्थितियों को वहुत सटीक प्रत्यक्षीकरण किया है । एक अङ्कवाले नाटको का चलन भी वहाँ हो रहा है। हमारी हिन्दी में भी इस प्रकार के नाटको के ऊपरी ढाँचे लेकर दो-एक सज्जन ‘नवीनता के आन्दोलन में अपना योग प्रदर्शित कर रहे है । मेरा नम्र निवेदन यह है कि पश्चिम में चाहे जो हो रहा हो, हमें अपने दृश्य-साहित्य को एकदम मॅगनी की वस्तु बनाने की आवश्यकता नहीं । जिस देश में दृश्य-काव्य का आविर्भाव अत्यन्त प्राचीन काल