पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२६

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काव्य में प्राकृतिक दृश्य १७ भावमूर्ति भवभूति ने यद्यपि शब्दालङ्कार की ओर अधिक रुचि दिखाई पर प्रकृति के रूप-माधुर्य की ओर उनका पूर्ण ध्यान रहा । नाटक में स्थल-चित्रण के लिए पूर्ण अवकाश न होने पर भी उन्होंने बीच-बीच में उसकी जो झलक दिखाई उससे वन्य प्राकृतिक दृश्यों का गूढ़ अनुराग लक्षित होता है । खेद है कि जिस कल्पना का उपयोग मुख्यतः पदार्थों का रूप सङ्घटित करने, प्राकृतिक व्यापारी को प्रत्यक्ष करने और इस प्रकार किसी दृश्य-खण्ड के ब्योरे पूरे करने में होना चाहिए था उसका प्रयोग पिछले कवियों ने उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त आदि की उद्भावना करने में ही अधिक किया । महाकवि माघ प्रवन्धरचना में जैसे कुशल थे वैसे ही उसके पक्षपाती भी थे ; पर उनकी प्रवृत्ति हमें प्रस्तुत वस्तु-विन्यास की ओर कम और अलङ्कार-योजना की ओर अधिक पाते हैं। उनके दृश्य-वर्णन में वाल्मीकि आदि ३. प्राचीन कवियों का सो प्रकृति का रूप-विश्लेषण नहीं है; उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास आदि की भरमार है । उदाहरण के लिए उनके प्रभात-वर्णन से कुछ श्लोक दिए जाते हैं अरुणजलजरानी मुग्धहस्ताअपादा बहुलमधुपमाला कज्जलेन्दीवराची । अनुपतति विरावैः पत्रिणा व्याहरन्ती रजनिमचिरजाता पूर्वसन्ध्या सुतैव ।। विततपृथुवरत्रातुल्यरूपैर्मयूखै कलश इव गरीयान् दिग्भिरीकृष्यमाणः । कृतचपलविङ्गालापकोलाहलाभिर्जलनिधिजलमध्यादेष उत्तार्थतेऽर्क ।। व्रजति विषयमणामंशुमाली न यावत् तिमिरमखिलमस्तं तावदेवाऽरुणेन । परपरिभवितैजस्तन्वैतामा कर्तुं प्रभवति हि विपक्षोच्छेदमग्रेसरोऽपि ।। ॐ स्त्रियों के सुख की कान्ति से शुन्य, जिनमें से धुएँ का निकलना बन्द हो गया है ऐसे झरोखे मकड़ियों के जाल से ढक गए हैं।

  • अरुणकमलरूपी कोमल हाथ-पैरवाली, मधुपमालारूपी कजलयुक्त कमलनैन्नवाली, पक्षियों के कलरवरूपी रोदनवाली यह प्रभातवेला सद्योजात बालिका के समान रात्रिरूपी अपनी माता की ओर लपकी आ रही है। जिस प्रकार घड़ा