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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद

में हुआ हो उसके भीतर उसका स्वतन्त्र रूप में नूतन विकास न हो सके, यह खेद की बात होगी। यह देखकर मुझे अत्यन्त आनन्द होता है कि ‘प्रसाद जी के नाटकों में इस प्रकार के विकास के पूरे . लक्षण मिलते हैं। उनके ऐतिहासिक नाटको में सबसे बड़ी विशेषता है प्राचीन काल के रीति-व्यवहार, शिष्टाचार, शासन-व्यवस्था आदि को ठीक इतिहास-सम्मत चित्रण । वस्तु-विन्यास और शील-निरूपण का कौशल भी उत्कृष्ट कोटि का है। उनके रचे अजातशत्रु', स्कन्दगुप्त चन्द्रगुप्त' आदि नाटकों को लेकर आज हिन्दी पूरा गर्व कर सकती है। मेरे देखने में अच्छे सामाजिक नाटकों का अभाव अभी बना है ।। इसके लिए ‘प्रसाद’ जी से न कहूँगा । जिस ऐतिहासिक क्षेत्र को उन्होने लिया है उसी के भीतर उन्हें अपनी प्रतिभा का उत्तरोत्तर विकास करना चाहिए । “वरमाला' के लेखक श्री गोविन्दवल्लभ पन्त भी अच्छे नाटककार हैं । स्वर्गीय पं० बदरीनाथ भट्ट की दुर्गावती' में अभिनय की विनोदपूर्ण सामग्री है। इधर हाल मे पं० सुमित्रानन्दन पन्त ने ‘ज्योत्स्ना' लिखकर कल्पनाजगन' को प्रत्यक्ष रूप में लाने का अच्छा आयोजन किया है । पर ऐसे नाटक शुद्ध नाटक की कोटि में न आकर, काव्य की कोटि में ही अपना स्थान रखते । शेली ने भी प्रथिवी, पवन इत्यादि प्राकृतिक शक्तियों को लेकर इस ढंग के दो-एक नाटक लिखे थे, जिनके अभिनय का ख्याल किसी ने कभी नही किया । हर्ष की बात है कि पारसी ढंग की थिएटर-कंपनियों ने भी अब हिन्दी में लिखे नाटको का अभिनय आरम्भ कर दिया है। इसके लिए संबसे पहले साधुवाद के पात्र हैं। पं० नारायणप्रसाद् बेताब । उनके अतिरिक्त आगा हशर साहब, मोहम्मद इसहाक साहब (शबाब ), बाबू आनन्दप्रसाद कपूर, वा० शिवरामदास गुप्त तथा व्याकुलजी ने भी थिएटरों में खेले जाने के लिए कई नाटक लिखे हैं ।