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चिन्तामणि

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चिन्तामणि पन्यांस* हमारे यहाँ के ‘कादम्बरी’, ‘दशकुमार-चरित' आदि पुराने कथात्मक गद्यप्रवन्ध गद्य-काव्य के रूप में ही मिलते हैं। उनकी रचना अत्यन्त अलंकृत और रसात्मक है। हमारे आधुनिक हिन्दी-साहित्य में 'उपन्यास' का नाम भी बॅगला से आया और उपन्यास का अंगरेजी ढॉचा भी । कथात्मक गद्य-प्रवन्ध के लिए वास्तव में यह ढॉचा बहुत ही उत्कृष्ट हैं । उपन्यास के दो तरह के ढॉचे मिलते हैं--पुराने और नाए । पुराने ढाँचे में काव्यत्व की मात्रा यथेष्ट रहती थी । परिच्छेदो के आरम्भ में अच्छे अलंकृत दृश्य-वर्णन होते थे और पात्रो की बातचीत भी कहीं कही रसात्मक होती थी ।बॅगला में जिस समय उपन्यास आए उस समय योरप में पुराना ढॉचा ही प्रचलित था, जिसे बहुत ही सुन्दर ढंग से बंकिमचन्द्र, रमेशचन्द्र दत्त आदि ने भारतीय साहित्य में लिया---ऐसे सुन्दर ढंग से कि यह जान ही न पड़ा कि वह कही वाहर से आया है। भारतेन्दु-काल से लेकर प्रेमचन्दजी के पहले तक हिन्दी में भी उपन्यास इसी ढॉचे पर लिखे जाते रहे ।। | पीछे योरप में 'नाटक' और 'उपन्यास' दोनो से काव्यत्व का अवयव बहुत कुछ निकालने की प्रवृत्ति हुई और दृश्य-वर्णन, भावव्यञ्जना, आलङ्कारिक चमत्कार आदि हटाए जाने लगे। इस नए ढांचे के उपन्यास, जहाँ तक मुझे स्मरण आता है, प्रेमचन्दजी के समय से हिन्दी में आने लगे । वर्तमान सामाजिक जीवन के विविध पक्षो और अतवृत्तियों की बड़ी पैनी परख प्रेमचन्दजी को मिली है। उन्होने हिन्दी के उपन्यास-क्षेत्र को जगमगा दिया । वे हमारे गर्व और गौरव के कारण है। सामाजिक उपन्यास हिन्दी में अच्छे लिखे जा रहे हैं। पर मेरा एक निवेदन है। इधर बहुत से उपन्यासों में देश की सामान्य जीवन-पद्धति को छोड़ बिल्कुल योरपीय सभ्यता के सॉचे मैं ढले हुए छोटे-से समुदाय के जीवन का चित्रण वहुत अधिक पाया