पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२८

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काव्य में प्राकृतिक दृश्य उदित हुआ वह वाच्य द्वारा स्पष्ट कह दिया गया । यही बात यदि यो कही जाय कि तालाब के उस किनारे पर खिले कमल ऐसे लगते हैं मानो प्रभात के गगन-तट पर की ललाई” तो सौन्दर्य का भाव स्पष्ट न कहा जाकर दूसरी ऐसी वस्तु सामने ला दी गई जिसके साथ भी वैसे ही सौन्दर्य का भाव लगा हुआ है । एक मे भाव वाच्य द्वारा प्रकट किया गया दूसरे मै अलङ्कार-रूप व्यंग्य द्वारा । इससे स्पष्ट है कि दृश्य-वर्णन करते समय कवि उपमा, उत्प्रेक्षा आदि द्वारा वर्य वस्तुओं के मेल में जो दूसरी वस्तुएँ रखता है सो केवल भाव को तीव्र करने के लिए ! अतः वे दूसरी वस्तुएँ ऐसी होनी चाहिए जिनसे प्रायः सब मनुष्यों के चित्त में वे ही भाव उदित होते हो जो वयं वस्तुओ से होते है । यो ही खिलवाड़ के लिए बार-बार प्रसङ्ग-प्राप्त वस्तुओ से श्रोता या पाठक का ध्यान हटाकर दूसरी वस्तुओं की ओर ले जाना, जो प्रसङ्गानुकूल भाव उद्दीप्त करने में भी सहायक नही, काव्य के गाम्भीर्य और गौरव को नष्ट करना है, उसकी मर्यादा बिगाड़ना है। इसी प्रकार बात-बात मे अहाहा ! कैसा मनोहर है | कैसा आह्लादजनक है !?? ऐसे भावोद्गार भी भद्देपन से खाली नहीं, और काव्य-शिष्टता के विरुद्ध हैं। तात्पर्य यह कि भावो की अनुभूति में सहायता देने के लिए केवल कही-कहीं उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का प्रयोग उतना ही उचित है जितने से विम्ब ग्रहण करने मे, दृश्य का चित्र हृदयङ्गम करने मे, श्रोता या पाठक को बाधा न पड़े। जहाँ एक व्यापार के मेले में दूसरा व्यापार रखा जाता है। वहाँ या तो (क) प्रथम व्यापार से उत्पन्न भाव को अधिक तीन्न करना होता है , जैसे, हिलती हुई मंजरियाँ मानो भौंरो को पास बुला रही है , अथवा (ख) द्वितीय व्यापार का सृष्टि के बीच एक गोचर प्रतिरूप दिखाना , जैसे "खुद-अघात सहैं गिरि कैसे ? खल के बचन संत सह जैसे ।