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२० चिन्तामणि दूसरी अवस्था में प्रस्तुत दृश्य स्वयं सृष्टि या जीवन के किसी रहस्य का गोचर प्रतिविम्बवत् हो जाता है । अतः उस प्रतिविम्व का प्रतिविम्व ग्रहण करने में कल्पना उत्साह नहीं दिखाती । इसी से जहाँ दृश्य-चित्रण इष्ट होता है वहाँ के लिए यह अवस्था अनुकूल नहीं होती है। वाल्मीकिजी भी बीच-बीच में उपमा देते गए हैं ; पर उससे उनके सूक्ष्म-निरीक्षण में कसर नहीं आने पाई है । वर्षा में पर्वत की गेरू से मिलकर नदियो की धारा का लाल होकर बहना, पर्वत के ऊपर से पानी की मोटी धारा को काली शिलाश्री पर गिरकर छितराना, पेड़ो पर गिरे वप के जल का पत्तियों की नोको पर से बूंद-बूंद टपकना और पक्षियों का उसे पीना, हेमन्त में कमली के नाल-मात्र को खड़ा रहना और उसके छोर पर केसर को छितराना, ऐसे-ऐसे व्यापारो को वह सामने लाते चले गए हैं। सुन्दरकाण्ड के पॉचचे सर्ग मे जो छोटा सा चन्द्रनामा' हैं वह इसके विरोध में नही उपस्थित किया जा सकता, क्योकि वह एक प्रकार की स्तुति या वर्णन-मात्र है। वहाँ कोई दृश्य-चित्रण नहीं है ।। विपयी या ज्ञाता अपने चारो ओर उपस्थित वस्तुओं को कभीकभी किस प्रकार अपने तत्कालीन भावों के रङ्ग में देखता है इसका जैसा सुन्दर उदाहरण आदिकवि ने दिया है वह वैसा अन्यत्र कहीं कदाचित् ही मिले । पञ्चवटी में आश्रम बनाकर हेमन्त में जव लक्ष्मण एक-एक वस्तु और प्राकृतिक व्यापार का निरीक्षण करने लगे उस समय पाले से धुंधली पड़ी हुई चॉदनी उन्हें ऐसी दिखाई पड़ी जैसी धूप से सॉवली पड़ी हुई सीता ज्योत्स्ना तुषारमलिना पौर्णमास्यां न राजते । सीतेव चातपश्यामा लक्ष्यते न तु शोभते ॥ इसी प्रकार सुग्रीव को राज्य देकर माल्यवान् पर्वत पर निवास