पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/३०

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काव्य में प्राकृतिक दृश्य करते हुए, सीता के विरह में व्याकुल, भगवान रामचन्द्र को वर्षा आने पर ग्रीष्म की धूप से सन्तप्त पृथ्वी जल से पूर्ण होकर सीता के समान ऑसू बहाती हुई दिखाई देती है, काले-काले बादलों के बीच मे चमकती हुई विजली रावण की गोद में छटपटाती हुई वैदेही के समान दिखाई पड़ती हैं और फूले हुए अर्जुन के वृक्षो से युक्त तथा केतकी से सुगन्धित शैल ऐसा लगता है जैसे शत्रु से रहित होकर सुग्रीव अभिषेक की जलधारा से सीचा जाता हो । यथा । एषा घर्मपरिक्लिष्टा नववारिपरिप्लुतो , सीतेव शोकसन्तप्ता मही वाष्प विमुञ्चति ।। नीलमेघाश्रिता विद्युत्स्फुरन्ती प्रतिभाति माम् । स्फुरन्ती रावणास्याङ्के वैदेहीव तपस्विनी ।। एष फुल्लार्जुन, शैल केतकीरधिवासितः । सुग्रीव इव शान्तारिर्धाराभिरभिषिच्यते ।। ऐसा अनुमान होता है कि कालिदास के समय से, या उसके कुछ पहले ही से, दृश्य-वर्णन के सम्बन्ध में कवियों ने दो मार्ग निकाले । स्थल-वर्णन में तो वस्तु-वर्णन की सूक्ष्मताँ कुछ दिनो तक वैसी ही बनी रही, पर ऋतु-वर्णन मै चित्रण उतना आवश्यक नहीं समझा गया जितना कुछ इनी-गिनी वस्तुओं को कथन-मात्र करके भावो के उद्दीपन का वर्णन । जान पड़ता है, ऋतु-वर्णन वैसे ही फुटकर पद्यों के रूप में पढ़े जाने लगे जैसे बारहमासा पढ़ा जाता है । अतः उनमे अनुप्रास और शब्दो के माधुर्य आदि का ध्यान अधिक रहने लगा । कालिदास के ऋतुसंहार और रघुवंश के नवें सर्ग में सन्निविष्ट वसन्तवर्णन से इसका कुछ आभास मिलता है । उक्त वर्णन के श्लोक इस ढंग के हैं--- कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तद्नु षट्पदकोकिलकूजितम् ।। इति यथाक्रमाविरभून्मधुमवतीमवतीर्य वनस्थलीम् ।