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चिन्तामणि

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चिन्तामणि रीति-ग्रन्थों के अधिक बनने और प्रचार पाने से क्रमशः यह ढंग जोर पकड़ता गया । प्राकृतिक वस्तु-व्यापार का सूक्ष्म निरीक्षण धीरेधीरे कम होती गया । किन ऋतु में क्या-क्या वर्णन करना चाहिए, इसका अाधार प्रत्यक्ष अनुभव नहीं रह गया, 'आप्त-शब्द' हुआ । वर्षा के वर्णन में जो कदम्त्र, कुटज, इन्द्रव, मेघगर्जन, विद्युन इत्यादि का नाम लिया जाता रहा वह इसलिए कि भगवान् भरत मुनि की आज्ञा थी-- कदम्पनिम्वटजे. गाद्वले सेन्ट्रगपर्कः । मेधैवर्ति सुस्प- प्राट्काले प्रदर्शयेत् ।। कहना नहीं होगा कि हिन्दी के कविया के हिस्से में यही आया । गिनी-गिनाई वस्तुओं के नाम लेकर अर्थ-ग्रहण-मात्रे कराना अधिकतर उनका काम हुआ, सूक्ष्म रूप-विवरण र आधार-आधेय की संश्लिष्ट योजना के साथ ‘बिम्ब-ग्रहण' कराना नहीं । ऋतु-वर्णन की यह प्रथा निकल ही रही थी कि कवियों को भी औरो की देखादेखी दंगल की शौक पैदा हुआ। जिसभाओ मे ललकारकर टेढ़ी-मेढ़ी विकट समस्याएँ दी जाने लगीं, और कचि लोग उपमा, उत्प्रेक्षा आदि की अद्भुत-अद्भुत उक्तियों द्वारा उनकी पूर्ति करने लगे। ये उक्तियों जितनी ही बेसिर-पैर की होती उतनी ही वाहवाही मिलती । काश्मीर के मद्धक कवि जव अपना श्रीकण्ठचरित-काव्य कश्मीर के राजा की सभा मे ले गए तव वहाँ कन्नौज के राजा गोविन्दचन्द्र के दूत सुहल ने उन्हें यह समस्या दी--- एतद्वभुकवानुकारिकिरण राजहोऽह 'शिरः श्छेदाभं वियतः प्रतीचि निपतत्यब्धौ रवेर्मण्डलम् ।। अर्थात् नेवले के बालो के सदृश पीली किरणो को प्रकट करता हुआ सूर्य को यह बिम्ब, चन्द्रमा का द्रोह करनेवाले दिन के कटे हुए