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काव्य में प्राकृतिक दृश्य ર૫ मिलता जो संस्कृत की प्राचीन कविताओं में पाया जाता है । केशव के पीछे तो प्रबन्ध-काव्यो का बनना एक प्रकार से बंद ही हो गया । आचार्य बनने का ही हौसला रह गया, कवि बनने का नहीं । अलङ्कार और नायिका-भेद के लक्षण-ग्रन्थ लिखकर अपने रचे उदाहरण देने में ही कवियों ने अपने कार्य की समाप्ति मान ली । ऐसे फुटकर पद्य-रचयिताओ की परिमित कृति में प्राकृतिक दृश्य ढूँढना ही व्यर्थ है। शृङ्गार के उद्दीपन के रूप मे ‘पट्ऋतु' का वर्णन अवश्य कुछ मिलती है, पर उसमे वाह्य प्रकृति के रूपो का प्रत्यक्षीकरण मुख्य नहीं होता, नायक-नायिका का प्रमोद या सन्ताप ही मुख्य होता है । अब रहे दो-चार आख्यानकाव्य । उनमे दृश्य-वर्णन को स्थान ही बहुत कम दिया गया है । अगर कुछ वर्णन परम्परा-पालन की दृष्टि से है भी तो वह अलङ्कारप्रधान है । उपमा, उत्प्रेक्षा अदि की भरमार इस बात की स्पष्ट सूचना दे रही है कि कवि का मन दृश्यों के प्रत्यक्षीकरण में लगा नहीं है, उचट-उचटकर दूसरी ओर जा पड़ा है। | कोई एक वस्तु सामने आई कि उपमा के पीछे परेशान । श्याम के ‘छबीले मुख' का प्रसङ्ग आया । बस, अन्धे सूरदास चारों ओर उपमा टटोल रहे हैं| बलि बलि जाउँ छवीले मुख की, या पटतर को को है ? या वनिक उपमा दीबे को सुकबि कहा टकटोहै ? उपमाएँ यदि मिलती गई तब तो सव ठीक ही ठीक, एक वस्तु के ऊपर उपमा पर उपमा, उत्प्रेक्षा पर उत्प्रेक्षा लादते चले जा रहे है। हरि-कर राजत माखन, रोटी', बस, इतनी ही सी तो बात है, उस पर मनों बारिज ससि-वैर जानि जिय गयो सुधासुहि धोटी ; मन बराह भूधर-सह पृथिवी धरी दसनन की कोटी । एक छोटी सी रोटी की हक़ीक़त ही कितनी, उस पर पहाड़ के